- 131 Posts
- 1380 Comments
किसान की चिठ्ठी…!
~~~~~~~~~~~~~
मैं एक किसान हूँ.
तुम्हारी पाँव की ठोकरों में मेरा खेत हो सकता है..
मगर मेरी मुठ्ठी में तुम्हारा वजूद है..
सुबह से शाम तक
जब तुम अपनी उंगलियों से
सर्च करते हो …आभासी दुनिया के तर्क..कुतर्क
तब तक मैं अपने खून को
पसीना बना कर बहाता हुआ
तुम्हारे पेट के लिए…
धरती से उगा ही लेता हूँ ..कुछ अन्न के दाने
बचा ही लेता हूँ .अपने लिए भी कुछ भूख और प्यास..
जब ज्वार ..गेंहूँ ..दलहन की फसलें
हो जाती है असमय बाढ़ या सूखे की शिकार
और लहलहाती हरी बालियों को …
पाला मार जाता है..
तब भी खाली पेट सेवार खाकर भी जीना जारी रखता हूँ..
और तब भी जब
पढ़ी लिखी शहरी जमात
फेंक देती है ..कुन्टलों अन्न कूड़ेदान में..
बजबजाती नालियों में …
जिसके एक एक दाने पर हम किसानों की
बेहिसाब मेहनत लिखी होती है…
और तब भी साँस लेता रहता हूँ..
जब सरकारी गोदामों में ..खुले आसमान के नीचे
वर्षा से सड़ जाता है..
करोड़ो खेतिहरों की दधीचि हड्डियों को गला कर
उगाया गया अन्न का विशाल भण्डार…
तब भी चुपचाप
घुटकते आँसुओं के बीच
फिर से एक बार
उम्मीद की नई फसल बोता रहता हूँ..लेकिन
हर बार छले जाते है हम किसान ..ही
कभी बम्पर पैदावार का लालच देकर..
विदेशी खादें ..
कभी हाइब्रिड के नाम पर
स्वाद..पोषण से रहित बीजों की खेप की खेप…
कभी
जमीन को जहरीला ..बंजर बनाते
कीटनाशकों के रक्तबीजी हमले…
और अभी तो जी एम फसलों का भस्मा सुरी ..
अंतिम आघात बाकी बचा है..
धीरे धीरे टूट जाती है हिम्मत
अपनी जमीन की ऊसरता…दीनता और निर्बलता
के साथ ही ऊसर ..दीन और निर्बल
हो जाते हम किसान..भी..
बस ठीक इसी समय
सूदखोर बैंकों के खूनी पंजे
हमारी और हमारी छत ..विछत जमीनों की गर्दन पर
कसने लगते है..
हमारे कमजोर सीनों पर
अपने नुकीले दांत गड़ा कर व्यवस्था के वे पिशाच…
पी जाते है
बचा खुचा हमारे जिस्मों का दो चार …
कतरा पीला खून भी….
Read Comments