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कुदरत !!कविता !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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बांध बनाने वाले
हाथो ने थाम लिया है,
कुदाल !
और वृक्ष रोपने वाले हाथों ने
कुल्हाड़े !
नदी आवाक है जंगल स्तब्ध !
कुदरत हैरत भरी आँखों से
देख रही है
जिद और जूनून की जंग में
आदमी की आँख का मरता हुआ पानी
जो नस्ल की नस्ल
तहस -नहस करती जा रही है
जमीन/हवा/तालाब/समन्दर और हरियाली
उजाड़ती परिंदों के ठिकाने
खूँखार तरीको से
कुरेदती धरती की छाती
पीढी दर पीढ़ी
काँपते रहे पहाड़
थर्राती रही तलहटियाँ
गुम हो गयी कुदरत की
मनमर्जियाँ !
पर अब वही कुदरत
लेने लगी है फैसले
चाहती है
इंसाफ /और बसाना चाहती है
अपने आप को
फिर से धरती के इस छोर से उस छोर तक
रहना चाहती है
बिलकुल अकेली जैसी वह हजारों साल
पहले रहती थी बेबाक/बिंदास/बेपरवाह
अपनी मनमर्जियों के साथ
अपनी खिलखिलाहटों के साथ
अपने समन्दर/अपनी नदियों/अपने पहाड़ के साथ
अपने जंगलो के साथ
मुक्त /अनावृत /शांत
भव्यता और एक अनिश्चित
अन्त हीनता के साथ !

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