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भाग्य विधाता !! कविता !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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‘ओ जन गण मन ! ओ जन जन मन !
ओ भारत भाग्य विधाता !
जाड़ो में हाड़ कँपाते हो,
खेतिहर मजदूर कहाते हो !
आधी रोटी आधी धोती में,
कैसे तुम जी पाते हो ?
पशु पंछी भी काँपे थर-थर,
तब गीली मिट्टी थपकाते ,
ओ दाता अन्न ! धरती धन !
ओ भारत भाग्य विधाता !
हँसिया खुरपी हल बैल नही,
दो बित्ता हाथ जमीन नही !
ऊँगली में श्रम की गाँठे है ,
माथे पर कोई लकीर नहीँ !
आँधी ओला पानी सहते ,
सारा जीवन बीता जाता !
ओ संजीवन ! ओ दुःख रंजन !
ओ भारत भाग्य विधाता !
उस काली सूखी चमड़ी में ,
भर कर छाती की सब साँसे !
दम को भी दम से दूर पटक ,
खेतों की मेढें पलटाते !
ऊसर बंजर धरती का मन ,
उस मेहनत से हिल जाता !!’

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