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नादान बच्चा !!कविता !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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वह नन्हा बच्चा ,
अब बड़ा हो गया है !
और समझदार भी !
नन्हें पाँवो में माँ ,
जिसके बांधती थी जूतों के फीते
वह पहनाती थी ,
अपने हाथो से,
बुन कर रंगीन मोज़े !
और ,
कंघी से खींच कर ,
उसके बालों को ,
परियों के देश का-
राजकुमार बना देती थी !
हर सुबह हर शाम !
माँ का सोना /खाना /रोना /और
हँसना सब समाहित था !
उसकी मासूम शख्सियत में !
पर ,
समय की परतो में वह ,
नन्हा बच्चा
कहीं खो गया !
माँ से
बहुत दूर वह हो गया है !
रहता है अब वह
कई समंदर पार !
वहाँ है उसका अपना घर परिवार !
और छोटे-छोटे बच्चे !
पर वहाँ माँ नहीं है !
माँ की चिठ्ठियों का जवाब भी ,
वह देता है स्काइप पर !
भेजता है
माँ को बहुत सारे पैसे !
जो माँ के काँपते हाथो से ,
बार-बार
बिखर जाते है !
छूट जाते है उसकी पकड़ से अक्सर ,
शायद वह समझाना चाहती है ,
अपने लाड़ले को ,
कि पैसे से तो पैसा ही
मिल सकता है !
माँ नहीं ,
वह चाहती है /सोचती है /और मांगती भी है ,
एक मात्र बेटे का साथ !
उसकी देह की गर्मा हट भरी मद गंध !
जो उसके ममत्व को ,
आश्वत कर सके !
छाती से चिपका कर,
प्राणों को हरा कर दे,
कमजोर कंधो कों,
अपने मजबूत बाजुओं से ,
थाम कर लड़खड़ा ने से बचाता रहे !,
और शायद इसी लिए
मोतियाबिन्द से लगभग अन्धराई आँखों में ,
इन्तजार की स्याहियाँ ,
उतर आई है !
भरभर राते अतीत के काले धब्बे
लगातार बड़े होते जा रहे है
उनको जरूरत है –
एक उजास की !
जो उसको रास्ता ,
दिखा सके ,
उम्र के आखिरी पड़ाव पर !
पर वह तो एक मात्र वही,
उसका कुलदीपक हो ,
सकता है !
पर कुनमुनाती सुबह से ,
रतजगो की रात तक ,
दस्तकें खामोश थी !
और कुछ भी बदला नही !
बचपन फिर सच में ,
लौटा नही !
वह बच्चा
अब कुछ अधिक ही समझदार हो गया है !
सभी ‘फालतू’और ‘बेकार’ चीजों को ,
जो कभी उसके बहुत करीब थी ,
और बचपन में बहुत प्यारी भी ,
वह उन सभी किताबों /खिलौनों /रंग बिरंगे कार्टून /
कार्ड और पेंसिलों को/पतंगों को/ खेलों को/
कहानियों और क़िस्सों को/
अपनी नटखट शरारतो को/
यहाँ तक कि ,
अपने बचपन को
हिफाजत से बंद कर आया है !
माँ की दी हुयी उस पुरानी लोहे की
संदूकची में !
उसी सन्दुकची में ,
जिसमे कभी वह बहुत पहले ,
रंग बिरंगी मासूम तितलियों को ,
पकड़ कर बंद कर देता था !
और फिर बेवजह अपनी ,
शैतानी जीत पर ,
जोर-जोर से हँसता था !
लेकिन वह यह भूल गया कि,
उसका जो सामान पीछे
छूट गया है,
या छोड़ आया है ,
उसमे उसकी माँ भी थी !
जिसे वह गलती से ,
उसी सन्दूकची में भरोसे का ताला
लगा कर बन्दकर आया है !
और उस संदूकची के डरावने अँधेरे में ,
एक-एक करके हर दिन टूट रही है ,
उसकी माँ की साँसे !
उसकी आँखों के काले धब्बे ,
अब और भी विकराल ,
और बड़े होते जा रहे है !
लगातार फैलते जा रहे है !
उसकी माँ के पूरे ,
वजूद पर !
आहिस्ता-आहिस्ता /हर वक्त !!

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