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उम्र भर ,
गीली लकड़ी की तरह
सुलगता रहा मन !
रोटियों की मानिंद हर रोज ,
आंच में सिंकता रहा तन-बदन !
लम्हा-लम्हा रेत सा ,
यूँ फिसलता रहा हाथ से !
पायदान-दर-पायदान !
दरकती दीवारों में यादो की राख ,
पैबंद भरती रही !
एक अरसा ,
खोजती रही वह
आसमान में अपना सूरज !
उम्र की लकीरों ने ,
जवानी की तस्वीर को ,
बुढापे की खूसट फ्रेम में ,
कब का तब्दील कर दिया !
और उसे पता ही नही लगा !
फ्राकों की
गुडियों की दुनिया ,
स्कूल की रंग बिरंगी पेंसिले ,
कापियाँ !
फुदकती गौरैया सी सहेलियाँ ,
सब दफन कर दी गयी ,
नेस्तनाबूद हो गयी !
मनहूस दालानो/अँधेरे भंडारघरों /और
जालों भरे रौशन दानो के ,
सिपहसालारो ने जब्त कर ली ,
हौंसलों की भी आजादियाँ !
पर उसे पता नही लगा ,
वह गूंथती आटा /सुखाती बाल /
कुनैन की तरह
रोज ही गटकती ,
लताड़े/उलाहने /
उदरस्थ करती बंदिशो की विभिन्न किस्में !
घर को समझती रही ,
पीर बाबा की मजार /और साँकलों को ,
मंदिर की घंटियाँ !
रोज टेकती माथा/जोड़ती हाथ/और सराहती भाग/
भरती माँग /ओढ़ती ओढ़नी /और ,
साधती साल भर ,
व्रत त्यौहार !
नाखुशी के लबादों को ,
सबके चेहरे से उतार कर,
परे धकेलने की उसकी,
बौनी नाकाम कोशिशें ,
थक हार कर,
खामोश होती गयी !
और उसे पता नही लगा !
जख्म सिलती/ हर शिकस्त का/
उधेड़ती इच्छाओं की बुनावटें /
बटोरती /रोकती/टोकती/
ढूँढती खुद
को रोज ही ,हर सुबह !
शाक भाजियों की छौक में ,
खौलती दाल की ,
खदबदाहट में !
वह तलाशती किसी कविता की तारतम्यता !
रूप/रस/ गंध के /स्वाद के स्पंदनों में .
बसी सहज गतियाँ/गीतिकाएँ !
बेसाख्ता ढ़ीठ उम्मीदों की ,
काँपती टांगों पर वह ,
खड़ी रही ,ताउम्र!
और कटी -फटी,
रेखाओं से भरे,
कमजोर हाथों से थामती रही,
जिम्मेदारियों के पहाड़ !
संतोष के नमक से,
जिंदगी भर खायी ,
बासी रोटियाँ !
और भूख प्यास का उसे पता ही नही लगा !
माथे की बढ़ती सिलवटों की ,
जकड़न के साथ ,
भोर से साँझ तक के घने अँधेरों में भी ,
काम के बोझ का सरकटा प्रेत ,
उसके कंधों पर सवार था !
जूनून की हद तक ,
जूनून का ज्वार था !
और अचानक एक दिन जब ,
संतान की संतानों ने भी ,
उसके जंग खाए अस्तित्व को
परिहास का एपिसोड बना दिया ,
बूढ़ी माँ कह कर ,
खिलखिलाहटों के बीच ही ,
घर के /सीलन भरे/अँधेरें कोने में ,
उसे रोप दिया ,
तब वह पहली बार ,
होश में आयी !
और उसे पता लगा कि ,
वह एक मामूली स्त्री थी/है/और रहेगी,
शायद ,
सदियों तक !!
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