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नदी अब मुक्त होना चाहती है !!कविता !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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नदी को तराश कर ,
बना दिए गये है बाँध !
नदी निशस्त्र हो गयी !
वेग ही था ,उसका हथियार ,
जिनसे रौंदती हुयी वह ,
सदियों का कलुष !
दुरात्माओं के नागफन ,
नदी,नाले ,पर्वतो के अवरोध !
बहाती धर्मो के पाखंड ,
जन्मों के द्वेष !
प्रदूषण मुक्त करती बसावटें,
धारती शिवत्व !
पीती सभ्यताओं के जहर !
बढ़ जाती थी ,क्षितिज के पार !
* * * * * * * *
वह उज्ज्ज्व्ल ,निर्मल, उत्कल
और फेनिल ,उन्मुक्त नदी अब निर्बला हो गयी है !
रुग्ण ,जर्जर बासी काया से,
नदी अब मुक्त होना चाहती है !
हाँफती आती हुयी ,
मीलों सफर से थक चुकी है !
ढो रही है वह ,
युगों से युगों की सड़ांध !
फफोलों से भर गए है,
उसके पाँव !
हर बूँद जख्मी है ,और लहरों के घाव,
सारे खुल चुके है !
पर धो रही प्रतिबद्ध सी वह आज भी ,
अविरल ,संस्कृतियों के पाप !
* * * * * * *
असंख्य जीवो के साथ जीता है ,
उसका पेट !
प्राचीरों के भग्नावशेष और
मंदिरों के कलश को ,
एक साथ गौरवान्वित करती हुयी ,
बढ़ जाती है उसकी धार !
वह नही जानती ,
नही मानती ,
कोई वर्ग भेद/जाति भेद/रंग भेद/
भेदभाव भरे मनुष्यों के बीच ,
वह बहती है !
निर्विकार/निर्लिप्त /निष्काम /निर्विशेष !
सबको एक साथ लेते हुए ,
सबको –
एक सूत्र में बाँधते हुए !
रोगी/भोगी/ढोंगी/सन्यासी और ,
सनातनी को !
मूर्ख और ज्ञानी को,धनी और निर्धनी को !
प्रशस्त पाटों के मध्य ,
निर्भ्रांत जलराशि का ,
मन्द संचरण !
* * * * * *
उसने देखा है –
शताब्दियों का संताप !
उसने सुनी है ,वध के लिए ले जा रहे ,
नंदियों की चीत्कार !
उसने सहा है ,
नृशंसता से मारी जा रही मछलियों का दर्द !
भोगी है उसने ,
खत्म होती जलीय जीवों की ,
एक पूरी श्रृंखला की
मार्मिक छट पटा हट !

*   *    *    *    *   *
दृष्टा है वह !
कृतघ्न मनुष्य के कुत्सित कृत्यों की !
उसकी कोख को काट कर,
निकाली गयी है ,
रेत की अपार राशि !
उत्खनन की दुर्धर्ष उस वेदना को ,
उसने जिया है !
उत्सर्जित सभ्यताओं के गरल को ,
उसने हर सदी में पिया है !
शवों को ,पतितो को  निस्तारती ,
मोक्ष दायिनी, पतितपावनी ,
आज अपावन ,दीन श्रीहीन बन चुकी है !
हर लहर बेजान,तेज हीन ,
बन चुकी है !
मानवीय वंशाव लियों को ,
तारती आज स्वयं निरवंश  हो चुकी है !
निष्पाप /निर्वाक /निशब्द /निर्झरणी का,
संतप्त ,उद्गिन ह्रदय ,
अब नही देना चाहता क्षमादान !
देव/यक्ष/किन्नर/गंधर्व/मनुष्यों की ,
किसी पीढ़ी को भी !
दो पाटों की बेड़ियों को
अब वह तोड़ देना चाहती है !
नदी अब मुक्त होना चाहती है !
सबको जला जल करके,
या फिर स्वयम होकर निर्जला !
वह नह़ीं चाहती ,
अब कोई और भागीरथ !
वह नही चाहती ,
अब कोई और पुण्य सलिला !
बहे धरती पर !
ढोये दू सरों के शाप !
स्वयं मलिन होकर भी !
वह नही चाहती ,
अब कोई सत्कर्म !
कुकर्मी मानव जातियों का !
वह बस अब स्वछन्द /पवित्र/आत्म लींन ,
रहना चाहती है !
वह दिव्य थी, और दिव्य रहना चाहती है !
शी तल/शांत/निर्मल/
अपनी प्रतिबद्धताओं से भी ,
नदी अब मुक्त होना चाहती है !!

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