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गंगा जागरण !!कविता!!

swarnvihaan
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तू निकल हिमालय के गृह से ,जाकर मिलती है सागर से !
हे अम्बे तेरी शुचि धारा ,उत्तम है अमृत, गागर से !
मधु जैसा जीवन में बरसे ,तेरी लहरों का उल्लास ,
निर्जन वन में गूँज रहा है , गंगे तेरा मधुमय हास !
स्वर्णिम आभा बिखराती सी ,सौन्दर्य स्वर्ग का नतमस्तक,
जब सूरज की स्वर्णिम किरणें, तुझमे क्रीड़ा करती मनरम !
युगों -युगों से कहते है ,सब तेरी पावन अमर कहानी ,
सप्त सरित में तू प्रधान ,तू सब नदियों की है रानी !
मानव की दीन पुकार सुने ,नव नीत समान तेरा अंतर ,
जाह्नवी तेरा अमृत सम ,पय पिघला देता उर प्रस्तर !
कलुषित मन को आश्रय देती ,पतितो की शरण दायिनी माँ ,
तज तेरे पावन चरणों को ,दुष्टों को जग में ठौर कहाँ ?
भागीरथ तप वरदान है तू ,भारत का गौरव गान है तू !
भव की अलकों में सुर सरिते ,करती सदियों से वास है तू !!

(रचना काल -1975 )

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