- 131 Posts
- 1380 Comments
आभा नाम है उस औरत का ,जो निरंतर एक वॄत्त में घूमते-घूमते यह भी भूल गयी ,कि उसका आदि और अंत किस बिंदु पर स्थित है ! पूरे अठ्ठारह घंटे लगातार गृहस्थी का जुआँ अपने कंधो पर रख कर ,कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना ,उसकी नियति और दिनचर्या दोनों ही है आखिर ,वह एक हॉउस वाइफ जो है !अपने मजिस्ट्रेट पति और दो बच्चो तुषार और शशांक की हर जरुरत और हर सुविधा का ध्यान रखना ,उसका कर्तव्य है ! उन्ही तीनो की फ़िक्र में उसके दिन का चैन और रातो की नीँद हराम है !सुबह के छ: बजे से रात के ग्यारह बजे तक अनवरत अथक अटूट उर्जा से भरी वह ,श्रमशील बनी रहती है !बच्चो की पढाई ,उन्हें स्कूल भेजना जैसे छोटे -छोटे कार्यो से लेकर बैंक शापिंग ,राशन इत्यादि का प्रबंध तक की जिम्मेदारियों का एक मकड़ जाल सा उसने अपने चारो और बुन लिया है ,जिससे अब चाह कर भी उसकी मुक्ति नही हो सकती !
ट्रिन….ट्रिन..ट्रिन तभी फोन की कर्कश आवाज ने ,उसकी फुर्सत के नन्हे क्षणों को टोक दिया ,और विचारो की श्रृंखला भंग होगई ! ‘हलो .’.’..मै शिरीष बोल रहा हुँ , आज शाम मेरे कुछ मित्र खाने पर आने वाले है, जरा ठीक से खातिर करना ,उन्हें पता है , कि मेरी पत्नी खाना बहुत अच्छा बनाती है !..’
‘ठीक है …’आभा ने स्वी कृति के साथ फोन रख दिया ,और बड़ी सहजता से शाम की तैयारी में जुट गई !
बड़े यत्न और परिश्रम से तैयार किये ,नाना व्यंजनों की मोहक सुगंध और सुसज्जित विविध प्रकार के पकवानो से आगंतुकों की जठराग्नि अनियंत्रित हो उठी ! स्वादिष्ट भोजन के तृप्ति भरे स्वाद ने ,औपचारिकता के नियमो के बंधन तोड़ दिए ,फिर तो घनिष्ठ आत्मीयता की चाशनी से सारा माहौल ही सराबोर हो उठा ! भोजन के उपरांत आभा प्रंशसको की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गयी !
‘यार शिरीष भाभी जी के हाथो में तो जादू है ,जी चाहता है , इतना लजीज पकवान बनाने वाले भाभी जी के हाथो को सिजदा कर लूँ !’ शिरीष के साथ ही नये-नये मुंशिफ मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए मिस्टर पराशर विभोर हो उठे !
‘आप इतना अच्छा खाना बना लेती है ,मुझे तो पता ही नही था ,हम लोगो की व्यस्त जिंदगी कहाँ फुर्सत देती है यह सब करने की ?’
एड वोकेट मिसेज पराशर की टिप्पड़ी ने आभा की जिंदगी के फालतू पन को केवल रेखांकित ही किया था ,कि मिसेज शुक्ल के प्रहार ने तो उसे निकम्मेपन की सीमा पर पंहुँचा दिया !
आप कुछ करती क्यों नही ? मिसेज रत्नाकर ! इतनी अच्छी एजुकेशन होने के बाद भी घर में बैठना बड़ा आउट ऑफ़ फैशन लगता है ! आपको कुछ अजीब सा नही लगता ! नारी मुक्ति के इस जमाने में केवल हॉउस वाइफ होकर जीना ,पड़ता तो, मैंने अब तक आत्महत्या कर ली होती …’
और फिर कहकहो का एक रेला सा आया ,जो आभा को कपड़े की तरह निचोड़ गया !
अपराधिनी सी मिसेज शिरीष रत्नाकर अपनी दयनीय असमर्थता को कोई नाम न दे पाने की स्थिति में रोने-रोने को हो आई ! गहराए हुए दर्द को बड़ी कुशलता से सहेजते हुए ,उनके निस्तेज से चेहरे पर एक भीगी सी हँसी धीरे से छलक पड़ी
!
अभ्यागतों को विदा करने के बाद ,प्राण हीन आभा बिस्तर पर ढुलक कर फूट -फूट कर रोने लगी ,अपने कार्यो का अवमूल्यन उसे कभी तोड़ नही पाया था ,पर वह मात्र एक ‘बेकार ‘और’ फालतू ‘चीज है ,ऐसी अपमानित करने वाली सामाजिक समझ उसे भीतर तक आहत कर गयी थी ! महज हाउस वाइफ होकर जीना ,नारी अस्तित्व का वह तिरस्कृत पहलू है ,जिसकी और आधुनिक सभ्यता के मान दण्ड आँख उठा कर भी नही देखते ,यह उसे आज से पहले कभी पता ही नही लगा !
बात वहाँ से शुरू होती है ,जब वह सोलह वर्षीय नवोढा बाल बधू बन कर पहली बार ससु राल की चौखट लाँघी थी !
उसके श्वसुर शहर के प्रख्यात समाज सुधारक थे !विशेष रूप से उनका नारी उद्धारक अभियान अत्यधिक सफल रहा था ! जगह -जगह सभाओं को संबोधित करते ,विधवा आश्रमों ,अनाथ बालिका शरणा लयों का उद्घाटन करते ,उनकी तस्वीरे समाचार पत्रों की शोभा बढाती रहती थी ! वे स्त्री को दुर्गा काली लक्ष्मी का अवतार मानते थे ,नारी स्वतंत्रता के घोर पक्षपाती थे ,दहेज़ प्रथा ,बाल विवाह आदि सामाजिक रुढियों के घोर विरोधी ,उसके पूज्य श्वसुर जी जाने कितने प्रेम विवाह समारोहों के मुख्य अतिथि बन चुके थे !
लेकिन आभा ने प्याज के छिलके की तरह पर्त- दर- पर्त चढे , उनके अनेक मुखौटो के पीछे उनका असली रूप तभी देख लिया था ,जब वे बारात लेकर उसके घर पहुँचे थे ! दहेज़ की रकम पूर्णत:अदा न कर पाने की स्थिति में ,उसके दीन पिता से मकान के कागजात तक गिरवी रखवा लिए थे ,तभी अपने बेटे से फेरे डलवाए थे !अपनी विवशता पर असहाय पिता का वह करुण रोदन आज भी उसके कानों को भेद जाता है ! उसका दस वर्षीय अबोध भाई इस व्यथा का मर्म न समझ पाने की स्थिति में बेचारगी के साथ भौचक्का खड़ा पिता को ताकता ही रह गया था !
गाँव की स्वच्छ आबो हवा ने ,आभा के रूप को समय से पहले ही निखार पर पहुँचा दिया था !जबकि वह अभी सोलह वर्ष की ही थी ,ससुराल आते ही गृहस्थी के भारी बोझ के नीचे ,उस बालिका बधू का समूचा अस्तित्व दब कर रह गया ! सास ससुर के कठोर नियंत्रण में कब उसका बचपन रूठ कर उससे दूर भाग गया ,वह जान भी न पाई ! कुछ ही दिन में बूढियो की तरह गृहस्थी के छोटे-छोटे दांव पेंचो से तो उसका परिचय हो गया ,लेकिन चढती उम्र के सिंदूरी सपने ,उमंग उल्लास ,अनजाने अपरिचित से होकर विस्मृति की एक गहरी धुंध में सदा के लिए दफ़न हो गये !
आभा के पति ,पिता के हाथ की कठपुतली मात्र थे ! जो खानदानी कारोबार का उत्तरा धिकारी अपनी संतान को बनाना चाहते थे ! पर उसके मेधावी , प्रतिभा शाली ,महत्वा काँक्षी ,पर भीरु पति पत्नी के आँचल में मुँह छुपा कर रातों को रोया करते थे ,वह इतने बड़े खानदानी घराने की कुल बधू थी ,अत: घर से बाहर निकलने का प्रश्न ही नही था ,वह श्वसुर की मर्यादा रेखा का उल्लंघन करने वाली बात थी ,फिर भी सच्ची जीवन संगिनी की भांति उसने पति का साथ दिया ,उसके सारे जेवर एक-एक करके पति की उच्च शिक्षा की भेंट चढने लगे ! उसे याद है ,जब उसका आखिरी कंगन बिका था , तो पति ने मुंसिफ मजिस्ट्रेट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी ,यह सब उसकी साधना और त्याग का ही फल था ,किन्तु क्षुब्ध श्वसुर ने आभा को इस विद्रोह की पूरी-पूरी सजा दी ! जिस घर में उनकी इजाजत के बिना पत्ता भी नही हिलता था ,उस घर में एक औरत ने ,वह भी घर की बहू ने ही ऐसा दुस्साहसिक कार्य कर दि खाया ,उन्हें अपने इकलौते पुत्र के मजिस्ट्रेट बनने की कोई ख़ुशी न थी ,केवल अफ़सोस था खानदानी व्यापर के अनाथ होने का ,और अपनी प्रतिष्ठा के आहत होने का ! आखिर उनके आक्रोश की चरम परिणति बेटा बहू को घर से निकाल कर ही हुयी !
पति के साथ उदरस्थ शिशु को भी लेकर ,आभा ने नए जीवन का शुभारम्भ किया ,
तुषार लगभग जब दो वर्ष का रहा होगा , तभी शशांक भी आ गया था ,दोनों बच्चो के थोडा बड़े होने पर आभा ने अपनी रुकी हुयी अधूरी पढाई पूरी की ! जब उसने साइको लाजी में पी एच डी की डिग्री दिल्ली विश्वविद्यालय से ली ,तब स्वयं शिरीष भी उसकी बौद्धिक क्षमता देख कर दंग रह गये थे ! उन्होंने आभा से अपनी शैक्षिक योग्यता का उपयोग करने की बहुत जिद की ,पर आभा ने सदा गृहस्थी और बच्चो की देख रेख को ही प्राथमिकता दी ! उसे लगता था ,कि उसके बिना बच्चो की पति की ,सेहत व शिक्षा घर की व्यवस्था सब कुछ बिगड़ जायेगा !अपनी अस्मिता के लिए उसे यह सौदा मंजूर नही था !
धीरे -धीरे बरस पर बरस सरकने लगे ,तुषार और शशांक दोनों अब बड़े हो गये ,तुषार तो इतना बड़ा कि अपनी पसंद की पत्नी भी ला सकता है ,हाँ ठीक ही तो है ,ॠचा तुषार के साथ ही काम करती है ,दोनों डॉक्टर है ,जोड़ी अच्छी रहेगी !लेकिन उसकी स्वी कृति से पहले ही ,अचानक तुषार कोर्ट से मैरिज सर्टिफिकेट और साथ में ॠचा को लेकर घर आ गया !फिर भी उदारमना और समझौता परस्त आभा ने सब कुछ बदलते हुए समय के साथ ,बड़ी सहजता के साथ स्वी कार कर लिया !
ॠचा थोडा सा खुले विचारो की थी ,और दिन रात घर में रह कर पति और बच्चों की गुलामी करना ,उसे सख्त नापसंद था ! घरेलू कार्य वह बिलकुल नही करती थी , कुछ तो झंझट लगता था ,कुछ वह घरेलू कार्य को हॉउस वाइफ का टैग समझती थी ,उसे अनुसार संसार की सबसे मूर्ख स्त्री ही ऐसे कार्यो को करना पसंद करेगी !तुषार उसके किसी भी कार्य व् विचार का प्रतिवाद नही करता था ! बल्कि उसमे इस प्रकार के साहस का सर्वथा अभाव था , क्योंकि ऐसा करने पर फ़ौरन उसे ‘आर्थोडाक्स’ या ‘कंजर्वेटिव’ की उपाधि मिल जाती !आभा को अब मजबूरन सारे कार्य करने पड़ते ,लेकिन उम्र की इस ढलान पर ,’अपनों’ की भांति स्वास्थ्य भी साथ छोड़ने लगा था !
शाम होने को आई ,तुषार व ऋचा आते ही होंगे ,सोचते हुए आभा चाय नाश्ते की तैया री करके जरा सुस्ताने को बैठी ही थी कि आँखो की धुंधलाई झील में यादो की परछाई याँ ,डूबने उतराने लगी ,कभी वह शिरीष का इसी तरह शाम की चाय पर इंतजार करती थी ,कुछ दिनों पहले ही वे उसे मझँधार में अकेला छोड़ कर हमेशा के लिए चल बसे थे ! तब भी वह कितनी अकेली और निस्सहाय हो गयी थी ! जीवन रथ का एक पहिया टूटते ही उसे पूरा रथ धसँकता हुआ दिखाई देने लगा था ,लेकिन दो जवान बेटो की बैसाखी ने उसे थाम लिया था ! दुःख के इस उमड़ते सैलाब में बस दो बूंद आसू ही उसकी हथेली पर गिरे थे कि –
‘मम्मी ….’
अचानक आभा की सुन्न पडती चेतना को एक आवाज ने सम्भाल लिया !
‘ॠचा नही आई !…’अपनी व्यथा को अन्दर ही घुटकते हुए आभा फिर वर्तमान की चौखट पर खड़ी हो गयी !
‘नही मम्मी …आज उसकी नाइट ड्यूटी है…और मुझे और मुझे भी अभी वापस जाना है ‘…
‘लेकिन वसु को तो बुखार है ,…..’सकुचातेहुये आभा जैसे अपने आप से कह रही हो ..!
‘ओह मम्मी मै अभी उसे दवा दे देता हूँ ,इसमें घबराने की क्या बात है..!’
‘बुखार उतर जाएगा …’
‘लेकिन ऋचा अगर आज ..’.अबोध शिशु की बीमारी से परेशान कुछ और कहने जा ही रही थी ,कि झुँझलाये हुए तुषार का कसैला स्वर उसे अन्दर तक चीर गया !
‘ॠचा को इतनी फुरसत कहाँ है माँ? …आखिर वह प्रैक्टिस करती है ,बात-बात पर छुट्टी नही ले सकती !और फिर तुम्हारी तरह घर गृहस्थी में ही अपनी जिंदगी बर्बाद करने वाली औरत वह नही है…’
विदग्ध माँ के उमड़ते आँसुओ को देखने के लिए फिर तुषार रुका नही ,उसी समय वापस चला गया !
अपनी लड़ाई अकेले लड़ते-लड़ते आभा आज बिलकुल ही हार चुकी है ,थक चुकी है ,संतोष करना उसे माँ ने घुट्टी में तो नही पिलाया था ,पर निष्ठुर परिस्थितियों ने ही उसे कभी सिर उठाने नही दिया ,फिर भी आज तक वह अपने आप को टूटने से बचाए हुए थी ,सहन शीलता को नारीत्व की गरिमा समझने वाली आभा दू सरो का जहर सदा खुद पीती रही !कभी शिकायत तक नही की ,पर जैसे आज संयम ने उसका साथ छोड़ दिया ,अच्छा होता इस विष पायी जीवन को वह विष के हवाले ही कर देती ! सांसों की अटकी डोर ने जीवन की उलझने और उलझा दी है !
तभी वसु की चीख-चीख कर रोने की आवाज ने उसके बिखरे हुए अस्तित्व के एक-एक टुकड़े को जैसे फिर जोड़ दिया !
उसने दौड़ कर पालने में रोते शिशुको गोद में उठा लिया ,उफ़…वसु तो तेज बुखार में जल रहा था .! दूसरे ही पल अपने वंश के उस अनमोल वरदान को सीने से चिपकाये ,आभा बेतहाशा डॉक्टर के पास भागी चली जा रही थी ,आखिर वह एक ‘हॉउस वाइफ’ जो है !!
Read Comments