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तिनकों का शहर !!कविता !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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मत कुचलो पावों से ,अभाव की फसलों को ,
इन तिनकों से एक शहर बसाना है ,मुझको !
जो डूब गया मेरे भीतर ,घुट-घुट करके ,
पल नहीं एक युग था ,पूरा बीते कल का !
चुक गये अर्थ मेरी खातिर ,चौराहों के ,
अब चाहे जो हो राह ,गुजर जाना मुझको !
तुम बेच रहे हो क्यों? छोटी-छोटी खुशियाँ .
हम बिके हुए लोगो में ,कौन खरीदेगा ?
आहट देता न दस्तक ही, दरवाजे पर ,
इस बुरे वक्त ने भी ,पहचाना है मुझको !
गलियों में दौड़ रहा ,पागल अँधियारा पन ,
होता क्या है ? सूरज के रोज निकलने से !
धर दो इस खुली हथेली पर ,विश्वास एक ,
जिसके नन्हे उजियारे से, आकाश सजाना है मुझको!

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