swarnvihaan
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सीपी सी आँखे ,भरी अंजली मुक्त़ा ले ,
जब -जब पग धोती है ,और शीश झुकाती है !
तुम कर लेते हो बंद कपाट ,सभी मन के ,
और लौटा देते हो ,भावों से भरा ह्रदय ,
तब इतना ही होता ,बसंत में एक फूल मुरझा जाता !!
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घायल होते थे पाँव ,सुबह की शबनम में ,
इतना अनजान कभी ,इस पथ का परिचय था !
एहसास नही होता है ,अब घावों इस -रिस बहने का ,
जीवन की तपती घूप ,सिखाती है चलना !
पलकों पर टिकती साँझो को ,झूठा सपना बहला जाता !!
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तुमने सीखी है सिर्फ ,दीप की निष्ठुरता ,
पर शायद देखा नही ,शलभ का जल जाना !
होता होगा क्या सुख ,तिल -तिल मिट जाने में ,
पूछों बन कर मिट गयी, धुँए की रेखा से !
टूटी पतवारों को कैसे ,छुप कर कोई सहला जाता !!
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