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कुंचित घुंघराले केशो से ,गंगा की अविरल धार बहे !
काले-काले विषधर भुजंग ,गौरांग अंग में लिपट रहे !
मृगछाल लपेटे महा दिव्य !दुखियों के दारुण दुख हरते !
तुम चित़ा भूमि की ले विभूति ,श्रंगार स्वयं अपना करते !
निज कृपा वृष्टि कर धो देना ,सर्वेश हमारे पाप दोष !
अभिशप्त क्षीण इन श्वासों में ,भर दो डमरूँ का अमर घोष !
उन्मीलित मस्तक मध्य नेत्र ,हे !आदि देव अवढर शंकर !
हे ! महासृष्टि के बीज बिंदु ,हो सत्य तुम्ही शिव भी सुन्दर
तेरे मस्तक पर रजनीकर ,करता मंद-मंद मृदु हास !
वरदानों से अपने भर दो ,मुरझाता यह जीवन उदास !
कर घोर तपस्या गौरी ने ,पाया तेरा चिर साहचर्य !
यदि तेरी भृकुटी के बल से ,हो महा प्रलय क्या आश्चर्य ?
भव बाधा नष्ट करे पल में ,बस ध्यान तुम्हारा आशुतोष !
जागो -जागो शिव समाधिस्थ !फिर अनावृत हो ज्ञान कोष !
कर दो शिव ऐसा प्रलय नृत्य ! हो चूर अहम् डूबे विषाद !
छूटे असत्य मन का विकार ! भागे मानव का ज्वर प्रमाद !!
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