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समाधिस्थ शिव !!(रचना काल -१९७६ )

swarnvihaan
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कुंचित घुंघराले केशो से ,गंगा की अविरल धार बहे !

काले-काले विषधर भुजंग ,गौरांग अंग में लिपट रहे !

मृगछाल लपेटे महा दिव्य !दुखियों के दारुण दुख हरते !

तुम  चित़ा  भूमि की ले विभूति ,श्रंगार स्वयं अपना करते !

निज कृपा वृष्टि  कर धो देना ,सर्वेश  हमारे पाप  दोष !

अभिशप्त क्षीण इन श्वासों में ,भर दो डमरूँ का अमर घोष !

उन्मीलित मस्तक मध्य नेत्र ,हे !आदि देव अवढर शंकर !

हे ! महासृष्टि  के बीज बिंदु ,हो सत्य तुम्ही शिव भी सुन्दर

तेरे मस्तक   पर  रजनीकर ,करता   मंद-मंद मृदु  हास   !

वरदानों से अपने भर दो  ,मुरझाता यह जीवन उदास  !

कर घोर तपस्या गौरी ने ,पाया  तेरा  चिर   साहचर्य !

यदि  तेरी भृकुटी के बल से  ,हो महा प्रलय क्या आश्चर्य ?

भव बाधा नष्ट करे पल में ,बस ध्यान तुम्हारा आशुतोष !

जागो -जागो  शिव  समाधिस्थ !फिर अनावृत  हो ज्ञान कोष !

कर दो शिव ऐसा प्रलय नृत्य ! हो  चूर अहम्  डूबे विषाद  !

छूटे असत्य मन का विकार ! भागे मानव का ज्वर प्रमाद !!

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