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आदि युगल तत्व व प्रेम की उत्पत्ति !!!सम भाव अभिव्यक्ति !!!तथ्यात्मक विवरण !!!

swarnvihaan
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‘नासदा सिन्नो सदासी त्त्दानी नासी द्र ओनो व्योमा परो यत् !
कि मावरोव: कुह्क्स्य शर्भन्न म्भ: कि सासी गहन गम्भिरम् !!’
(ऋग्वेद (तृ ०ख०) दशम् मण्डल ,अनुवाक्-११सूक्त-१०९-पृष्ठ १७७४
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जब असत् नहीं था ,सत नहीं था ,पृथ्वी आकाश आदि कुछ भी नही था,बृम्हाण्ड भी नही था ,अमृतत्व ,मृतत्व भी नही था !तब वायु आदि से निरवलम्ब ,आत्म प्रकाश से युक्त एक मात्र ब्रह्म ही था !
वह महान और पूर्ण सौन्दर्य ही संभवत:एकाकी पन से मुक्त होने के लिए ,स्वयं को विभक्त कर लेता है ! बिम्ब ही मानव प्रतिबिम्ब बन कर चमक उठता है !और सृष्टि के दर्पण में असंख्यो सौन्दर्य कण बिखर जाते है ! धरा ज़ीवंत हो उठती है !उस परम गोपनीय रहस्य भरी लीला का परिणाम ही यह विश्व है ! एक ही परम ब्रह्म नाना रूपों में विभक्त होकर विश्व रूप हो गया !
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‘त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उतवा कुमारी !
त्वं जीर्णे दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि विश्वतो मुख : !!’
श्वेताश्वेतोप निषद -अध्याय ४/३/३ पृष्ठ- १८८
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वह स्वयं ही अपने सौन्दर्य से मुग्ध होकर आत्म रमण लीला में आनंद मग्न हो उठता है !आनन्द की इसी अनादि लीला को ही वैष्णवों ने ,’आदि रस ”उज्जवल रस ‘ या प्रेम की संज्ञा दी है !यह प्रेम ही समस्त सृष्टि का मूल ऊर्जा स्त्रोत है !यही मधुर रस है ! आनंद के इसी कारण तत्व को ,भारतीय धर्म साधना में युग नद्धावस्था ,यामल और अद्वय तत्व भी कहा गया है !यह अभेद भाव की ही स्थिति है !यही रहस्य भक्तों की आराधना ,और भक्ति का प्राण बिंदु है !जहाँ आनंद है ,वहाँ युगल भाव का सामरस्य है ! जहाँ सामरस्य या अद्वयभाव है ,वही आनंद और रस है ,प्रेम का विस्तार आनंद ही है !
भारतीय  मनश्चेतना साधना के उन गहरे स्तरों तक ,आदि युग में ही पहुँच चुकी थी !जहाँ सृष्टा का रहस्य कर्ण कुहरों में स्वत: ही ध्वनित होने लगता है !आत्म परिष्कार की इस उद्बुद्ध चेतना का ही परिणाम हमारे वेद है ,क्योंकि तप:पूत प्राणों को ही मन्त्र -दृष्टा होने की शक्ति मिल सकती थी !इस समस्त विश्व में अनुस्यूत अद्वैत भाव की एक अखंड धारा का ,
रहस्य उद्घाटन उसी वैदिक युग में सदियों पूर्व ही हो चुका था !अथर्व वेद ,वृह्दारणयक ,तैत्तरीय उपनिषद,भागवत
पुराण ,ब्रह्म वैवर्त पुराण ,विष्णु पुराण ,हरि वंश पुराण ,एवं चैतन्य संप्रदाय ,वल्लभ संप्रदाय ,निम्बार्क सम्प्रदाय ,राधावल्लभ संप्रदाय से लेकर ,हिंदी में सूर दास ,विद्यापति ,नन्ददास आदि कवियों ने ,मनीषियों ने युगल तत्व को अद्वय तत्व बताया है !इसके अतिरिक्त सांख्य मत ,प्रतिभिज्ञा दर्शन ,तंत्र साहित्य ,शक्ति वादी मान्यतायेँ ,सब में उसी अद्वय भाव का उद घोष है !
यही युगल भाव प्राचीन वैदिक संस्कृत वांड़मय में पूर्ण स्पष्टत: से विराजमान है !यह पुरुष अनादि है ,और एक है ! यह दो प्रकार का रूप धारण कर सब रसो को ग्रहण करता है !यह स्वयं ही नायक रूप होकर अपनी आराधना में तल्लीन हुआ ! इसी से वेद जानने वाले इसे राधा रसिकानंद कहते है !इसी के कारण यह लोक प्रेम मय है !आनंद मय है ! (कल्याण -कृष्णांक ,पृष्ठ -४८२)
वह पुरुष एकाकी न रह सकने की वासना से प्रेरित हो ,स्वयं को दो भागो में विभक्त कर लेता है !एक भाग नारी और एक भाग नर ! दोनों एक ही परम तत्व के दो भाग है ! जिस प्रकार द्विदल अन्न का एक ही दल वास्तव में होता है ,जिस प्रकार परस्पर आलिंगित स्त्री पुरुष होते है , उसी भाव में युगनद्ध भाव का संवर्धन हुआ !इसी लिए प्रत्येक देह अर्ध पूर्ण है !
पुरुषार्थ स्त्री तत्व से सम्पूर्ण होता है ,और स्त्री तत्व पुरुष तत्व से !दोनों एक दूसरे में समर्पित होने के लिए बने है !सम्पूर्ण पृकति में यही लीला चल रही है !
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सवै नैव रेमे तस्मादेकाकी नर भये स द्वितीय मैच्छ्त !स है तवानास यथा स्त्री पुमां सौ सम्व रिष्व कतौ स इम मेवात्मान द्वैधापात यत्तत:पतिश्च पत्नी चाभ वतांत स्मादिद मर्ध वृगलमिव स्व इति हस्माह याज्ञवल्क्य स्त्स्मादय आकाश :स्त्रिया पूर्यत एवतां समभवत्ततो मनुष्या अजा यन्त !
(वृहदारणयक उपनिषद् -अध्याय -१ ब्राह्मण- ४ श्लोक -३ पृष्ठ ११२४ )
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छान्दोग्य उपनिषद् युग नद्ध अवस्था का महत्व प्रतिपादित करते हुए उसे शब्द ब्रह्म रूप बताता है ! उदीथ अर्थात ॐ मिथुन है ! कामनाओं की तृप्ति और आनद रस का निर्झरन तभी संभव है !
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वागे वर्क प्राण: सामोमित्येत द क्षरमुद्वीथ: !
तद्वा ए तान मिथु नं चाक्य प्राणश्रृचक च साम च !
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तदेत न्मिथुनं मोमित्येत स्मिनन्नक्षरे सँ ,सृज्यते यदा !
वै मि थुनो समा गच्छत आपयतो वै तावन्यो न्यस्य कामम् !!
(छान्दोग्य उपनिषद् -ख – १ ,श्लोक -५-६ पृष्ठ -३७-३९)
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द्वैत ही मिथुन वस्था का आनन्द रहस्य है ! किन्तु इस द्वैत में भी अद्वैत की सत्ता विद्यमान है !इस गोपनीय तत्व को जान लेना ही राधा भाव या गोपी भाव में उपनीत होना है ! वास्तव में परम तत्व के द्वैत का कारण लीला विलास है !अन्यथा वह परम तत्व उपाधि विहीन शुद्ध सत्व रूप आनंद घन सिन्धु है !
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‘ अना द्योयमं पुरुष एक एवास्ति तदेवं द्विघा रूपं विधाय !
सर्वांनसाह रति स्वमेव राधिका रूपम विधाय समाराधन !
तत्परो भूतं तस्मात्त्तां रसिका नंदा वेदविदो वदंति !!
उज्ज्ज्वल नीलमणि की भूमिका से उधृत -(साम रह्र्योप निषद )
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संसार में जो भी पुरुष वाचक है ,जड़ व चेतन में ,मनुष्य ,पशु ,पक्षी ,अथवा किसी भी योनि में ,और जो भी स्त्री वाचक है ,किसी भी रूप में वह पुरुष मात्र विष्णु ही है !वह स्त्री मात्र लक्ष्मी जी ही है ,अन्य कोई दूसरा तत्व कही नही है !
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देव तिर्यङ मनुष्या दौ पुन्नामा भग वा नहरि :!
स्त्री नाम्नी श्रीश्र्च विज्ञेया नान यो विर्द्यते परमं !!
(विश्नुपुराण -अध्याय -८ ,प्रथम अंश )
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वह सूक्ष्म प्रकृति व्यक्त होकर जगत की रचना में पुरुष की ही प्रेरणा से प्रवृत होती है !पुरुष व् मूल प्रकृति का यह युगल सम्बन्ध यहाँसूक्ष्म है ! रहस्यमय है !प्र कृति का रूप यहाँ अविकृत है !वह केवल विश्व की शुद्ध कारण स्वरूपा है !
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मूल प्रकृति रति कृति मर्ह दाद्या :प्रकृति विकृतिय: सप्त !
षोडश कस्तु विकारो न प्रकृतिनै विकृति :पुरुष: !!
(संख्य कारिका-पृष्ठ -६,)
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वेदांत दर्शन भी प्रकृति पुरुष के अद्वय सम्बन्ध को ही सिद्ध करता है !प्रकाश व सूर्य की भांति उनकी शक्ति भिन्न भी है ,और अभिन्न भी !
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(प्रकाश श्रयवद्धा तेज्स्त्वात् -३-२-२८- वेदांत दर्शन -पृष्ठ -२६६)
यह युगलोंपासना आदि काल से अद्यतन प्रचलित होती आई !यही प्रेम विश्व मानवता में मुखरित हुआ है !प्रेम विश्व भी है , और विश्व कारण भी !साध्य भी है ,और साधना भी !! युगलों पासना ही समस्त वैषण व रस उपासना के केंद्र में रही !एक तत्व दो रूप की स्थिति ही तो युगल उपासना पद्धति का आधार है !! प्रेम का यह आदि पीठ है ,जहाँ से रस धारा और अनिर्वचनीय आंनद जग को प्रणयी रुप में प्राप्त होता है !!

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