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अन्नदाता !!लम्बी कविता !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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औरते ,
झुण्ड की झुण्ड !
सुबह सवेरे ही निकलती है ,
खेतों की ओर !
अपने औजारों के साथ !
हंसिया और खुरपी !
जिनकी ,
होती है तेज धार !
मलिन कपड़ो में बंधी ,
कुछ बासी सूखी रोटियाँ भी है!
जिनके साथ प्याज नमक,
और होता है ,
कभी -कभी ,गुड़ भी !
जो दिलासा देता है ,
घनी दुपहरी में !
आंतो से चिपके ,
उनके भूखे पेट को !
ओसारे/दालानो/देहरियों/
को वे ,
पीछे मुड़ -मुड़ कर ,
ताकती /झांकती /ठिठकती /
और –
निहारती उन नौनिहालों को !
जो घुट्नुओं के बल ,
चलते या नन्हे कदमों से,
लुढकते /गिरते /संभलते /
वे कल के ,
अबोध खेतिहर !
मिटटी में,
लोटते /भागते /दौड़ते /
माँ के पीछे आते !
कभी रोते –
मिनमिनाते /ठिनकते /पोंछते /
उसके मटमैले आँचल में ,
अपनी नाक ,
और कभी जोर से सुड.कते !
कुपोषित /अपोषित /अधनंगे /अधखुले /बदन ,
लगातार –
अतीत होते वर्तमान के छोर को पकड़े!
रखते अपने कोमल पग !
निर्मम और कठोर भविष्य की ,
नीव पर !
अपनी दुष्कर नियति पर !
बदरी /बूंदी /घाम /दोपहरी /
सहते वे सालो साल !
किशोर से जवान होते ,
वे खेतिहर बालक !
जुतते /ज़ू झते /खलिहानों में /खेतों में ,
रात दिन !
उगाते फसल
और बुनते सपनो की सुनहरी बालियाँ !
पर केवल ,
मेहनत कश उन हाथो में ,
फूटते छाले !
सूखे /पपड़ाये होंठ/ पांवो में ,
गहरी होती बिवाइयाँ !
सच के भयावह ,
बंजर बियाबान !
नन्हे पौधों को भी नहीं देते ,
पनपने ,
कभी अपने आसपास!
फटे/मैले/आधे/अधूरे/
कपड़ो में ही बीत जाते ,
उनके –
बरखा/बसंत/शिशिर /हेमंत /
ठि ठु रते/सर्दीली हवाओं में
ठ ठरियों से बदन !
सूखे पुआल जला कर ,
जान फूंकते ,
वे अपने मरियल जिस्मों में !
भारत के होनहार किसान ,
खेतिहर अन्नदाता !
जिनके खून पसीने से उगाये ,
अन्न पर जिन्दा है ,
हमारा जन गण !
हमारा जन तंत्र !
फलता फूलता राष्ट्र !
फूलते नेता ,फलते अभिनेता !
और हमारा खाद्यान ,
उगाने की होड़ में ,
सबसे आगे ,
दुनिया के नक़्शे पर गर्वित
हिंदुस्तान !
* * * * * *
वे औरते !
जो बासी रोटी की ,
गंध में भी खोजती रहती ,
छप्परो /टूटे खपरैलो से दूर ,
पक्की छतो के नीचे ,
बसने का रास्ता !
पानी से भरे ,
खेतों में धंस कर ,
घुटनों -घुटनों रोपती है वे ,
धान की फसले !
नही देखता ,तब वहाँ कोई ,
उनके –
आधे उघडे./कुम्ह लाये वक्षस्थल !
अधखुली /तेज धूप से !
काली/पपड़ाई /सूखी टांगे /
जवानी में ही ,
बेरंग /बुढाती /सठियाती /
रोजमर्रा की –
बदहाल जिन्दगी !
क्योंकि वे औरते ,
वहाँ केवल बेजान जिस्म है !
ठेठ यांत्रिक कामगी र !
शायद –
इसीलिए नहीं पड़ी है ,
उनपर ,अभी
नरम गोश्त के सौदागरों की /
गिद्धो की /चीलों की/
द्रष्टि !
वे बची है शायद इसलिए भी ,
अभी तक !
अपनी अस्मिता,अपने मान के साथ !
बेधडक घूमती है वे,
गाँवो में/खेतों में/खलिहानों में /
करती है काम ,
सुबह शाम /दिन रात /
क्योंकि नहीं पहुँच सकी ,
अभी वहाँ-
टेक्नोलॉजी के भेड़िये की ,
दुर्निवार कामुकता !
और उसकी घिनौनी साजिशे !
मोबा इल /इंटरनेट की ,
पोर्न साई टें !
* * * * * *
सारी फसल ,
जब पक कर होती है तैयार !
तब तक छाती पर ,
उस बेबस किसान के,
चढ़ बैठता है !
बैंक महाजन के कर्जो का बेताल !
घर में केवल ,
बच पाता है अन्नदाता की !
मिटटी की डेहरियों में ,
बस थोड़ा सा धान !
जिससे वे,
बुझाते है ,दोनों समय
पेट की आग!
पर जब चुक जाता है ,
वह भी धान ,
और नही चुकता ,
उनके कर्जो का पहाड़ !
तब अभागे होरी और धनियाँ के ,
बिक जाते है ,
खेत और खलिहान !
और फिर ,
उसी रस्सी के फंदे पर
झूल जाती है –
जिंदगी की अंतिम साँस !
जिस रस्सी से वे ,
खींचते थे ,
खेतों से खलिहानों तक ,
फसलो के भारी बोझ !!

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