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कपट तुम्हारा समझ न पाए ,
केवल नेह तुम्हारा देखा !
फंदे थे कोरी बातो के ,
टूट गई हर सीमा रेखा !!
तीरथ जैसी दृष्टि तुम्हारी ,
गंगा तट स्पर्श तुम्हारा !
पल भरमे क्यूँ बिंधां तीर से ,
घायल मृग सा ह्रदय हमारा !
दो नयनों में जब दम टूटा ,
तुमको भी कुछ प्यासा देखा !
केवल नेह तुम्हारा देखा !!
ध्रुव तारे से अटल प्रणय का ,
वह सम्मोहन केवल भ्रम था !
स्वारथ की उस पाप निशा में ,
जितना भटके , उतना कम था !
अंतर भावुकता में मैंने ,
क्यों न भेद तुम्हारा देखा !
केवल नेह तुम्हारा देखा !!
लावा धधक रहा था भीतर ,
ऊपर -ऊपर बरखा जल था !
न समझी थी ,सोचूँ कैसे ?
किसमे कितना जहर भरा था !
पर इस विष प्याले में मैंने ,
उड़ता रंग तुम्हारा देखा !
केवल नेह तुम्हारा देखा !!
जितना गहरे उतरी तल में ,
उतना गहरा जाल बिछा था !
मीन रही उपकार मानती ,
छल ही छल से ताल भरा था !
दो मुठ्ठी इस रेत में मैंने ,
सारा खेल तुम्हारा देखा !
केवल नेह तुम्हारा देखा !!
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