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समय का अन्तराल !!कविता !!contest !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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जब कभी –
डूबने लगता है ,
सूरज क्षितिज के पार !
और संध्या ,
किसी स्थिति प्रज्ञ के विराग सी ,

उतरने लगती है –
तुम्हारी आँखों की ,
नीलाक्त अतलता में !
तब अकस्मात् ही अँधेरा ,
कितना सघन और गंभीर ,
हो उठता है !
जैसे यह जोगिया परिधान में ,
लिपटा हुआ सा मौन !
जैसे यह-
अचंचल ठहरा हुआ सा ,
समय का सत्य !
और –
उस स्याही में ,
दिवस की समस्त स्वर्ण रेखाएँ
तिरोहित हो जाती है !
भावुकता के अमर्यादित ,
ज्वार को भी ,
निष्कंप आत्म सात ,
करने में समर्थ !
हताशा के गरल को अपने ,
फेनिल उच्छ्वासों में ,
वहन करने वाला ,
अब-
तुम्हारी आँखों का ,
समंदर भी कितना गहरा है !
* * * * * * *
मैंने देखा है !
वह प्रभात भी –
जब तुम्हारी आँखों के ,
सरोवर में –
खिलते थे नीलकमल !
जिसकी सुगंध में ,
डूब -डूब जाती थी –
चेतना की समस्त ,
संयम साधनाएँ!
और लहरीली पलकों में ,
उषा की अरुणिमा –
बंदिनी थी!
जिनमें तैरता था ,
अबोध शिशु का सरल बचपन !
हिरन के नयनो का
चापल्य !
और तारुण्य की,
स्वाभाविक निर्मलता !
सपनीले कूलो से फिर ,
अनायास ही –
कितने इंद्र धनुषी रंग,छलक
जाते थे !
और-
इन अनगिनत रंगों को !
अभिव्यक्ति की क्षमता ,
देने वाला
तब-
तुम्हारी आँखों का ,
चित्रकार भी कितना भावुक था !
* * * * * * *
अब तो वह ,
स्वर्ण बेला बीत चुकी !
जब मैंने चाहा कि मन की ,
धरती को छू जाये !
तुम्हारे चित्रकार की ,
तुलिका का कोई रंग!
और-
याचना के ,
सूखे पुलिनो पर ,
बिखर जाये ,
शायद –
कभी अनजाने ही ,
तुम्हारी करुणा की लहरों से !
मुक्ता की कोई चंचल राशि !
इस अवधि में !
प्रभात से संध्या ,
तक के अन्तराल में !
बहुत कुछ ,
बदल गया !
अब तो प्रार्थना गूंगी है !
और –
अश्रु बहना भूल चुके!
क्योंकि –
भूल से क्षमा तक की ,
सारी व्यवस्था ही ,
बहरी और अंधी है !
लेकिन –
फिर भी ,पागल प्रतीक्षा ,
के पांव थके नहीं !
कि शायद ,
कभी कोई ,
ज्योति किरण ,
अभिषिक्त कर जाये ,
मेरी कुटिया का अंधकार !
क्योंकि –
सघन तिमिर की,
निरंतरता में भी !
आस्था के पुण्य आलोक की,
रजत रश्मियों से,
अपनी मुस्कानों को ,
बाँधने वाला ,
तुम्हारी आँखों का
आकाश ,
अब भी कितना ,
उज्जवल है !!

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