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हमारे साहित्य मनीषी !!!डा०हजारी प्रसाद द्विवेदी!!!आलोचना!!!contest !!!

swarnvihaan
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आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही बहु श्रुत है !हिंदी साहित्य के गद्य को जिन विरल स्वनाम धन्य मनीषियों ने अपनी ओजस्वी लेखनी द्वारा कृतार्थ किया है ,उनमे द्विवेदी जी का नाम सर्वोपरि है !उनकी साहित्य साधना ने हिंदी वाड.मय के एक पूरे और विशाल युग को प्रभावित किया है !उनकी चमत्कृत कर देने वाली अपार सृजनातमकता और अपूर्व मेधा ने उन्हें एक ऐसा विराट प्रभा मंडल प्रदान किया था ,जिसके आगे स्वयं ज्ञान भी नत मस्तक हो गया !विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा शाली व्यक्तित्व ,और अति सरल अभ्यांतर !किंचित रहस्यात्मकता ,और गूढ. रसज्ञता के झीने आवरण में उनके अस्तित्व को अनायास ही ढक लेता है !
उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कठिन तपश्चर्या और खोज पूर्ण साहित्यिक साधना में बिताया !१९३०से१९५०तकवे शांति निकेतन में शिक्षण कार्य करते रहे !पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने’ अभिनव भारती ग्रन्थ माला’ का संपादन किया !कुछ समय तक’ विश्वभारती’पत्रिका का भी संपादन किया ! हिंदी भवन ‘विश्व भारती ‘के वे संचालक थे !१९४९ में उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के कारण लखनऊ विश्व विद्यालय ने उन्हें ‘डाक्टर आफ लिटरेचर ‘की उपाधि प्रदान की , कुछ समय वे ‘काशी हिन्दू विश्व विद्यालय ‘ में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष  रहे !फिर १९५२ में वे जब वे ‘ काशी नागरी प्रचारिणी सभा ‘के अध्यक्ष हुए ,तब वहाँ जो अति महत्त्व पूर्ण कार्य उन्होंने किया ,वह था ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा ‘ काशी के हस्त लेखो की खोज !वे राज भाषा आयोग के राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य भी थे !१९५७ में राष्ट्रपति ने उन्हें ‘पद्मभूषण’की उपाधि प्रदान की !फिर वे पंजाब विश्व विद्यालय मेहिंदी के प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष रहे !१९६२ में उन्हें ‘पश्चिम बंग साहित्य अकेडमी’द्वारा टैगोर पुरस्कार से सम्मानित किया गया !इस बीच उनकी साहित्यिक यात्रा निर्बाध चलती रही !१९७३ में केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा द्विवेदी जी को पुरस्कृत किया गया !
आचार्य द्विवेदी जी संस्कृत ,प्राकृत, अपभ्रंश , हिदी और बंगला साहित्य के मर्मज्ञ थे ! एक और अंग्रेजी साहित्य का अनुशीलन उन्हें ग्रीक साहित्य के अनुवाद की ओर ले जाता है ,तो दूसरी ओर इतिहास के प्रमाणिक अंशो की खोज करके उसके मृत कलेवर में जीवन्तता और रस वत्ता भर देना ,उनकी सिद्ध हस्त लेखनी के लिए अति सरल था !कबीर ,सूर ,तुलसी उनके प्रिय विषय थे ! साथ ही रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी उन्हें सदैव आकर्षित किया !
वे अनुवादक भी थे, और कवि भी, इतिहास कार भी थे ,और सजग रचना कार भी !वे पुरानी बंधी हुई रुढियों के पक्षपाती नहीं थे ,लेकिन वे मर्यादित जीवन शैली के समर्थक थे !संस्कारों को मनुष्य जाति का उज्जवल आभूषण समझने वाले द्विवेदी जी ,मनुष्य को अत्यंत मूल्यवान और मनुष्यता को उससे भी अधिक अमूल्य समझते थे !आदिम युग की नग्न प्रवृत्तियों पर मनुष्य ने अपनी तपश्चर्या व् साधना से विजय पाई है ,परंपरा से मिले गुण मनुष्य के दीर्घ प्रयासों का परिणाम है ,उन्हें तिरस्कृत करके मानवता का उद्धार संभव नहीं है !’अशोक के फूल ‘में वो यही उदघोष भी करते है -‘धारा रुद्ध न होने पाए ,कौन जानता है ?,भविष्य में उसी धारा में कौन कृती बालक पैदा होकर संसार को नई रौशनी दे !’
हिंदी भाषा से पूर्व जो साहित्य हमारे समाज में घुला मिला था ,उसके विकास का व्यापक निरुपण करके द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के भव्य फलक को प्रस्तुत किया ! इसी कारण डा०नामवर सिंह जी भी मानते है ,कि’ परम्परा के इतने विराट परिदृश्य में हिंदी साहित्य को रख कर देखने का यह पहला प्रयास था !’और यही द्विवेदी जी की साहित्य के क्षेत्र में सबसे बड़ी उपलब्धि भी है !
ऐ तिहासिक उपन्यास ‘बाण भट्ट की आत्म कथा ‘का नायक संघर्ष शील व्यक्तित्व का धनी है !वह केवल कवि या भावुक प्राणी न होकर वरन समूचे आर्यावर्त के उद्धार का निमित्त बन जाना चाहता है !उनकी रचना’ चारूचन्द्रलेखा ‘बारहवी ,तेरहवी शताब्दी के उस काल का सर्जनात्मक पुन:निर्माण करने का प्रयत्न है ,जब सारा देश तांत्रिक साधनाओं के मोह पाश में बंधा था !ऐसे अंध विश्वास व् अनर्गल वर्जनाओ से भरे युग को वे ,ज्ञान,क्रिया ,इच्छा की त्रिवेणी मे अभिसिक्त करते है !समस्त जन साधारण को वे उस महा कुम्भ का निमित्त बनाते है !उनके इन उपन्यासों में अनायास ही उनका युग मुखर हो उठा है !उनके उपन्यास संस्कृत शब्दावलियों ,प्रगल्भ भाषा भाव विचार ,के कारण भी ऐति हासिक उपन्यासों का उत्कृष्ट मान दंड निर्धारित करते है !इन उपन्यासों के माध्यम से, उन्होंने एक विहंगम कला दृष्टि की संरचना की !
द्विवेदी जी के ललित निबन्ध शास्त्रों को लोक से जोड़ते है !संस्कृत को हिंदी में समन्वित करते है !विविध विषयों पर निबंधो की व्यापकता ,ज्ञान व् सौन्दर्य का मिश्रण है ,और साथ ही मनुष्य को देवत्व की श्रेणी तक पहुँचाने का माध्यम भी !मध्य कालीन धर्म साधना पर उनके व्याख्यान अत्यंन्त चमत्कारी है !नाथ संप्रदाय व् संतो पर ,सिख गुरुओं पर उनके आलेख अपभ्रंश साहित्य ,संत साहित्य पर उनकी व्यापक खोज ,कबीर ,तुलसी ,चंडीदास ,चैतन्य ,रवीन्द्र नाथ टैगोर के माध्यम से छलकता उनका मानवता वाद,उनकी सॄज्नात्मक ता की जटिल विशेषताओ ,और सूक्ष्म संभावनाओं को अंकित करता है !उनकी कृतियाँ उनके जीवन में ही शास्त्रीय और अपूर्व बन चुकी थी!जन्म जात प्रतिभा के धनी द्विवेदी जी जीवन की समग्रता में विश्वास रखते थे !वह दृष्टा व् सृष्टा दोनों थे !उनकी पारदर्शी वाणी प्राचीन सिद्ध ॠषियों की भांति हजारो साल से ,मुमुर्ष जाति को ललकार कर कर्मठता का पाठ पढाती है !उन्होंने अपने युग की कुरीतियों का सामन्ती परिवेश के विरुद्ध दृढव्रती हो, श्रम साध्य संघर्ष किया !विचार वाणी ,कार्य और लेखनी द्वारा प्रति शब्द ,प्रति कदम वे अन्याय के विरोध में जीवन भर खड़े रहे !कालिदास और टैगोर उनके मुख्य प्रेरणा स्रोत रहे !जिनके माध्यम से उन्होंने अपने मानवता वाद को पल -पल प्रस्तुत किया !
उनका समस्त साहित्य एक वैचारिक आन्दोलन सा खड़ा करता दिखाई दे रहा है !वे सुदृढ और निर्भय व्यक्तित्व के स्वामी थे !वे काव्य की आलोचना जैसी वस्तु को ,अत्यंत गूढ विषय मानते थे !उनके अनुसार ‘काव्य जैसी सुकुमार वस्तु की आलोचना के लिए अपने संस्कारो से बहुत ऊपर उठने की जरुरत है !फिर वे संस्कार चाहे देश गत हो या काल गत !’साथ ही वे ‘बाण भट्ट की आत्म कथा ‘में एक भय मुक्त जीवन की उदघोषणा करते हुए भी दिखाई देते है !वे कहते है ,’किसी से भी नहीं डरना ,गुरु से भी नहीं ,मन्त्र से भी नहीं ,लोक से भी नहीं ,वेद से भी नहीं’! ‘चारू चन्द्र लेखा’में उनके विचार आज की वैश्विक परिस्थितियों पर ,एकदम सटीक उतरते है !वे कहते है ‘सारा समाज धर्म की झूठी परिकल्पना के कारण जर्जर हो गया है !शतधा विछिन्न हो गया है !आत्म निर्भरता की भावना से हींन हो गया है !’निश्चय ही उनका जीवन गीता के ज्ञान योग और कर्म योग का जीता जागता उदाहरण बन गया था !
लगभग तीस पैंतीस वर्षो तक साहित्य की निरंतर साधना ,और उसके अन्वेषण के पश्चात ,उनका साहित्य लालित्य कोटि में अभिव्यक्त होता ,प्रतीत होता है !एक रस सिद्ध साधक का सतत सात्विक कौशल ही ,उनकी सम्पूर्ण रचना धर्मिता पर विराजता है !उन्होंने पग -पग पर साहित्य के मर्म की विवेचना की !इनके साहित्य में सुकुमार भावुकता ,निश्छल हास्य ,निष्कपट व्यंग ,की सहज तल्लीनता व्याप्त है ! द्विवेदी जी हमारे हिंदी साहित्य के प्रखर पुरोधा थे !मनीषी विद्वान थे !हिंदी भाषा उनकी चिर ॠणी है ! वे अपने अंतिम दिनों में ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’के उपाध्यक्ष भी रहे ! इस प्रथम कोटि के साहित्य कार का महा प्रयाण उन्नीस सौ उन्नासी में होने के साथ ही एक महायुग का अंत भी हो गया !!

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