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अठठारह सितम्बर दो हजार पांच की वह पितृ विसर्जन की अमावस्या की रात थी !मन अनायास इतना विकल था,कि रात भर करवटें बदलती रही ! अज्ञात आशंका ह्रदय को रह रह कर आंदोलित कर रही थी !कुछ ऐसा था जो वातावरण को करुण व् मार्मिक बना रहा था !पुन:पुन:बचपन की तमाम यादें मन को कचोट रही थी !पर यह सारा परिदृश्य मेरी ,सोचने समझने की शक्ति से परे हो रहा था !कुछ घडी बाद धीरे धीरे ही सही नींदं ने अपने पंख फैलाने शुरू कर दिए !फिर कब सो गई ,पता नहीं लगा !
मुझे सुबह जल्दी उठ कर अखबार पढने की आदत है !नित्य की भांति दरवाजा खोल कर ,अख़बार के पन्ने पलट ही रही थी ,कि तभी अन्दर के पृष्ठो पर एक विज्ञापन देख कर निगाह ठहर गई !रेलवे स्टेशन की बेंच पर पिछली रात एक लावारिस लाश मिली है ,जो पूरी तरह से पहचान में नहीं आरही है,सूखी काली त्वचा शरीर से चिपक चुकी है ,कंकाल मात्र शव की शिनाख्त के लिए यह एक महज सरकारी विज्ञप्ति थी !मन अशांत हो उठा,कौन हो सकता है ?किस बेचारे की इतनी दर्दनाक मौत हुई ?लगता है पेट में कई दिनों से अन्न का एक दाना भी नहीं गया था !
“आशी कहाँ हो तुम ?लगता है आज भूखा ही ऑफिस जाना पड़ेगा !”
केतन की आवाज मुझे एक गहरे कुँये से आती सुनाई दी !फिर भी मै किसी तरह यथा स्थिति में लौटी !
और घर की दिन चर्या में पूर्व वत व्यस्त हो गई !शाम होते होते फिर वही बैचेनी मन -प्राण को विचलित करने लगी !
आखिर मैंने तय किया कि कल जाकर उस लावारिस लाश के बारे में पता करुँगी !मेडिकल कालेज में मेरी एक अत्यंत घनिष्ठ मित्र डा०संध्या मुखर्जी ,जो वहाँ माइक्रो बायलाजिस्ट है ,उन्ही से मिलूंगी ,लेकिन दुसरे दिन इसकी नौबत नहीं आई !उन्नीस सितम्बर के सुबह के अख़बार ने अनजाने घाव के सारे टांके स्वत:ही खोल दिए !शव की पह चान हो चुकी थी ,मेरी अनजानी सी आशंका सच साबित हुई ,वह भोला प्रसाद शर्मा का ही मृत शरीर था ! किसी पड़ोसी ने आकर पहचाना था शाम तक !पुलिस वालो ने कोई वारिस न मिलने के कारण उस पार्थिव देह का अंतिम संस्कार करवा दिया था !
अब मन और भी दुगने वेग से सारी रात टीसता रहा ,मुठ्ठी में लेकर दिल को जैसे कोई बार बार निचोड़ रहा था !पर आखिर मै कर ही क्या सकती थी ?कैसे कहती किससे कहती ,कि वे मेरे धर्म पिता थे !उनके हाथो से कितनी ढेर मिठाइयाँ बचपन में कितनी बार खाई होंगी ,हम सब भाई बहनों ने !इसका कोई हिसाब मेरे पास नहीं है !उनके कंधे और बांहों पर इधर उधर लटके हुए हम सभी तीनो भाई बहन ,शाम होते ही उस छोटे से कस्बे की हाट में सड़को पर यूँ ही निरुद्देश्य घूमना शुरू कर देते थे !और जिस खिलौने या खाने की चीज पर मन मचलता ,वह अगले ही क्षण सहज स्नेह से सनी हँसी के साथ हम बच्चो के हाथो में होती !एक बार कुछ पड़ोसी महिलाओं के साथ मेरी माँ भी ,अयोध्या की चौदह कोसी परिक्रमा के लिए ,हम सबको साथ ले गई थी !और मुझे ठीक ठीक याद है ,कि मैंने और छोटे भाई ने पूरी परिक्रमा भोला दादा के कंधो पर ही पूरी की थी !हाँ ,हम सब उन्हें भोलादादा का ही संबोधन देते थे !वे हम सब के अत्यंत आत्मीय और प्रिय जो थे !पिता के समान संरक्षण और अधिकार को थामे हुए ,वे स्नेह सिक्त मूर्तिमान शिव थे!
हम सभी भाई बहनों की बचपन की सारी उन्मुक्तता , जिद्दीपना,चुलबुली शैतानियाँ,हँसना रोना -मचलना सब उन्ही भोला दादा के साथ ही तो गुंथी थी !असली पिता का चेहरा तो सदा एक खौफ की तरह ही हम सब के जेहन में उभरता रहा !
जितना पिता जी से हम सब बच्चे डरते थे,उतना ही माँ और भोला दादा भी उनसे डरते थे !वे सदा से हम से अलग थे ,उन्हें केवल पढते हुए धीर गंभीर बच्चे ही ठीक लगते थे !पर हम सब की उछलती कूदती ,मचलती एक अलग ही दुनिया थी ,जिसमे मेरे पिता कभी प्रवेश नहीं पा सके ,क्योंकि उन्होंने अपने आसपास एक ऐसा तिलिस्म रच रखा था, जहाँ सामान्य जनो का ,या सामान्य बचपन का कोई सत्कार नहीं था !
वास्तव में मेरे पिता ,एक अति आदर्श वादी ,अभिजात्य सोंच वाले ,प्रखर बुद्दि सम्पन्न बहुमुखी प्रतिभा के धनी ,एक विशेष व्यक्तित्व संपन्न अभिमान की सीमा तक गर्वीले ,पुरुष थे ! वे पिता कम शासक अधिक थे !उनकी उन्नत मेधा ने उनसे उनका सरल स्नेहिल ,भाव प्रवण मन छीन लिया था !बच्चो के प्रति कठोर अनुशासन उनका पहला धर्म था !शिक्षाग्रहण करना ही एक मात्र ,बचपन का ध्येय है वे ऐसा मानते थे !बाल्यावस्था खेल कूद ,उन्मुक्तता ,नटखटपन और स्वछन्द आचरण के लिये भी जानी जाती है ,ये मेरे पिता कभी समझ नहीं पाए !महज पांच वर्ष की अवस्था में ,पत्र लेखन की हिंदी अशुद्दियो के कारण दोनों गालों पर कस कर जमाये, गए तमाचे मुझे जीवन भर याद रहे !
जहाँघर में पिता का अनुशासन एक अभिभावक की तरह हम सभी को कठोर जिम्मेदारियाँ,निभाना सिखाता रहा, वहीं माँ का सरल भोला ममतालु ह्रदय अनवरत हम सब पर स्नेह वर्षा करता रहा ! मेरी माँ एक भोली भाली सरल ग्रामीण महिला थी ,वह निरक्षर थी ,पर उनका जीवन दर्शन बड़े बड़े ज्ञानियों को भी निरुत्तर करने के लिए पर्याप्त था !उनका मन निश्छल व सादगी से परिपूर्ण था !वे प्राणी मात्र के प्रति अति दयालु ,और सबकी बिना भेद भाव के सेवा करने वाली महिला थी !घर गृहस्थी में ही जीते जी उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया था !पिता के लिये दुनिया की हर सुन्दर वस्तु उनके ही लिए जैसे बनी थी ,पर माँ के लिए तो उनकी ममता का अपार सिन्धु ही सब कुछ था !कही कोई उस क़स्बे में बीमार पालतू या लावारिस जीव जंतु होता ,फ़ौरन माँ के पास भेज दिया जाता ,या उन्हें बता दिया जाता ,और वे तत्क्षण उसकी सेवा चिकित्सा में तन्मयता से जुट जाती ! लोग उन पर व्यंग करते ,कोई कोई हँसता भी ,पर वे निर्विकार भाव से ,अपना कर्तव्य करती रहती !सुबह चार बजे से रात के नौ बजे तक ,अनवरत श्रम करने वाली नि:स्वार्थी अपनी माँ जैसा दूसरा व्यक्तित्व मुझे आज तक के जीवन में कहीं देखने को दुबारा नहीं मिला !उनकी इस तीमार दारी का सभी लाभ उठाते ,और इस तरह मेरा घर एक छोटा मोटा चिड़िया घर बन गया था !जहाँ तमाम पशु पक्षी मौज मनाते ,और कई तो वापस कभी अपने मूल स्थान तक गए ही नहीं !पिता जी की माँ के इस कार्यक्रम में कोई दखलंदाजी नहीं थी !वे माँ के इस स्वभाव से परिचित थे ,और कही न कही परोक्ष रूप से उनकी मदद ही करते ,पशु पक्षियों के लिए कारपेंटर लगा कर लकड़ी के घर बनवाना ,और व्यवस्था देखना वे खुद करते थे !बस माँ के सामने उनका अहंकार कभी नहीं टूटा !क्योंकि एक जीवन संगिनी के रूप में वे माँ को नापसंद ही करते रहे ,अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप न होने के कारण वे उन्हें अपने योग्य नहीं मानते थे !और इसकी उन्होंने माँ को भरपूर सजा भी दी ,प्राय:हम सब बच्चो की उचित अनुचित मांगो का पक्ष लेने के कारण उन्हें पिता द्वारा दिया गया शारीरिक दंड भी भुगतना पड़ता !पर वे गजब की सहन शील ,संतोषी और अपने बच्चो को अपनी निधि मानने वाली, संकल्प शक्ति की धनी महिला थी !उन्हें हर बार पिता के अत्याचार का शिकार बनते देख हम बच्चो के मन में पिता के लिए एक तरह की नफरत तो नहीं ,पर विरक्ति का भावअवश्य पैदा हो गया था !हम सब अबोध होने के कारण ज्यादा कुछ विरोध या समझने के लायक तो नहीं थे !पर मन कसैला सा अवश्य हो गया था ,और इन सबके बीच अनाथ ब्राम्हण नव युवक भोला प्रसाद शर्मा का हमारे घर में आगमन हुआ !
जो समय के साथ एक ऐसे अनाम रिश्ते की मजबूत डोर में में बंधता चला गया ,जिसका सगे खून के रिश्तो से भी कोई मुकाबला नहीं था !
जाने कैसे रेल के डिब्बो में भीख मांग कर ,गाना गा कर बड़े होने वाले ,उस नौजवान को यह क़स्बा इतना पसंद आ गया ,या कस्बे के लोगो को वह नौजवान इतना पसंद आ गया कि ,उसके सम्पूर्ण जीवन की कर्म शाळा वह क़स्बा ही बन कर रह गया !उसकी उच्च जाति ,उत्तम संस्कार,कर्मठता ,व् ईमान दारी को देख कर ,कसबे के बुजुर्गो व् प्रधान ने ,मिल कर उसे वहाँ का चौकी दार बना दिया !इस तरह कस्बे में रोजी रोटी का साधन मिल जाने से उस नौजवान भोला प्रसाद का मन धीरे धीरे वहाँ लगता चला गया !वे हमारे मोहल्ले की तरफ वाले रास्ते के ही चौकीदार बनाये गये ,ग्राम सभा की जमींन पर !धर्म शाला के कुछ कमरों में ही एक कमरा उन्हे रहने के लिए दे दिया गया !हर पर्व त्यौहार पर अच्छे घरो से दान दक्षिणा और उचित वेतन मिलने के कारण ,वे तनिक खुशहाल जीवन जीने लगे !चूकिं वे एकदम अकेले रहते थे ,और उनको मेरे पिता जी भी अत्यधिक मानते थे ,उसका कारण था ,उनका लिहाज भरा व्यवहार !उत्तम आचरण ,और अतुलनीय कर्मठता !जो पिता जी के बनाये अपने आदर्शो से बिलकुल मिलता जुलता था !वे प्रा य: घर में आतेजाते रहते ,और हम सब डरे सहमे बच्चो को ,उनके रूप में एक सीधा साधा साथी मिल गया था !
वे आजीवन अविवाहित रहे ,और मेरी माँ को अदब से बहू जी ,व् पिता जी को बाबू जी कहते !हम लोगो को याद है ,कभी वे माँ पिता जी सामने बराबर से नहीं बैठे ,उनके सामने वे सदा जमींन पर ही निगाह टिकाये रहते !और बातचीत करते हुए भी जमींन को ही देखते रहते !
वे जब भी आते ,हम सभी बच्चो को उदास और डरा हुआ ही देखते ! माँ की सूनी आँखों में ,केवल वंचित न्याय और संसार की निस्सारता भर चुकी थी !वे जिन्दा थी तो अपने जीवन मोह के कारण नहीं ,बल्कि अपने बच्चो के मोह के कारण !कभी कभी गृहकलह चरम पर होने के कारण कई कई दिनों तक जब घर में खाना नही बनता ,तो वे भोला दादा ही थे जो अपने पैसो से छुपा छुपा कर खाने पीने की चीजे हम बच्चो को खिलाते !और कभी कभी उनका कातर भाव माँ को भी कुछ खाने को मजबूर कर देता !पिता की आँख बचा कर यह ‘मानव सेवा’ का कार्य क्रम जब तब चलता रहता !
अति क्रोधी ,दुर्वासा पिता के साये के नीचे कल कल बहती मन्दाकिनी की धारा की भांति माँ व् भोला दादा के नेह में भीग कर हम सब बच्चे बड़े होने लगे !पिता के कठोर अनुशासन ने ,हम सब बच्चो के व्यक्तित्व को भविष्य में जिम्मेदार ,कर्तव्य निष्ठ व् धीर गंभीर बनाने में बहुत मदद की !पर माँ का ह्दय तो अपनी सम्पूर्ण मृदुलता से मेरे सीने में उसी रूप में अवस्थित हो चुका था !वही भाइयो को पितृ पक्ष से क्रोध अहंकार ,तीव्र बुद्दि ही अधिक मिली !
धीरे धीरे रोज रोज के गृह कलह से तंग आकर माँ की घन घोर सहन शक्ति भी अब जवाब देने लगी ,वे यदा कदा प्रतिरोध करने लगी !एक बार माँ पर उठे पिता के हाथ को मात्र चौदह वर्ष की आयु में,मेरे छोटे भाई ने पूरे साहस से थाम कर कह दिया था,कि वह सारे भाई बहन माँ के साथ कही और चले जायेंगे ,यदि उन्होंने माँ के साथ दुबारा ऐसा व्यवहार किया तो …!पिता आ वाक हतप्रभ से उसे देखते रह गए थे ,उनके बच्चे कभी उनका ऐसा विरोध करने की हिम्मत कर सकते है ,वह भी इतनी कम उम्र में !वह सोच नहीं सकते थे ,पर हम सब बच्चे माँ से उसी भाँतिं लिपट कर मजबूती से उस दिन खड़े हो गए थे ,जैसे चिपको आन्दोलन में सरल भोले ग्रामीण जन पेड़ को कटने से बचाने के लिए ,उससे चिपक कर उसकी रक्षा करने को कटिबद्ध होजाते थे !
लेकिन इस घटना के बाद पिता जी की आंखे पूरी तरह खुल गई,वे एक एक कर अपनी सारी बुरी आदतों को छोड़ने लगे !माँ पर हाथ तो उन्होंने उसके बाद कभी उठाया ही नहीं !बल्कि आये दिन पश्चाताप की मुद्रा में सिर झुकाए बैठे रहते , आत्म ग्लानि का भाव निरंतर बढ रहा था ,और गहरी ईश्वर भक्ति की और भी पिता जी का रुझान इसी मध्य प्रारंभ होने
लगा था ! जो अंतिम समय तक चरम भक्ति में परिणित हो गया था !शायद उसी भक्ति का परिणाम था, कि अपने अंतिम समय की सटीक भविष्य वाणी उन्होंने एक महीने पूर्व कर दी थी,और स्व मृत्यु की पूरी तैयारी सहजता से करते रहे ,बस वो यही कहते रहे ,कि कृष्ण मुझे लेने इस तारीख को आएंगे ,और वे आये भी थे शायद !तभी तो अंतिम समय में पिताजी के चेहरे पर एक अपूर्व प्रकाश था ,हाथ हिला कर वे जब हम सब को अंतिम विदा दे रहे थे !
धीरे धीरे पूरा परिवार उनमे आये इस बड़े परिवर्तनको देख कर उनसे गहरी सहानुभूति रखने लगा था !और अपने करीब अपने पिता जी को पाकर हम लोग,बेहद खुश थे !
भोला दादा पूर्व वत आते रहे ,अधिकतर उनका खाना पीना मेरे ही घर पर रहता था ,और वे जाते भी कहाँ ?पर कभी अपनी जरूरतों को ,अभावो को ,जुबान पर नहीं लाते ! चौकी दारी से मिले सारे पैसे तो वे ,निस्पृह भाव से हम बच्चो पर ही हर महीने खर्च कर देते !ब्याह उनका कोई करने वाला था ही नहीं !और उन्होंने इस बारे में कोई कभी रूचि भी नहीं दिखाई ,समय धीरे धीरे बीतता रहा !संयोग से मेरी शादी भी कस्बे से थोड़ी दूर पास के शहर में ही हुई !तब तक भोला दादा भी पचास पछ्पन की आयु तक पंहुच चुके थे !वे कदाचित अति संस्कारी ,संयमी और सदाचारी ब्राह्मण थे ,पर वे एक मनुष्य भी थे और मानवोचित कमजोरियाँ उनमे भी थी !
,संभवत:उन्होंने जीवन भर दान पुण्य में मिली पूंजी बैंक में रख छोड़ी थी ,कुछ समय बाद पता लगा ,कि जाने कहाँ से एक शातिर बंजारन जाति की महिला भोला दादा से मित्रता के लिए बहुत लालायित रहने लगी!माँ ने भी और पिता जी ने भी उस औरत से यथा संभव सावधान रहने की कई बार हिदायत दी ,पर शायद वे कंही ज्यादा विचलित हो चुके थे ,उस महिला को जाने कैसे उनके बैंक एकाउंट के बारे में ठीक से पता था ,यह सारा घटना क्रम तो हम सब को बहुत बाद मे पता लगा !तब तक देर हो चुकी थी !जीवन भर की साधना कलंकित होने की कगार पर थी !थोडे ही समय में कुछ लल्लो चप्पो ,कुछ बीमारी में सेवा का बहाना करके वह दुष्ट चापलूस महिला उनकी परम आत्मीय बन गई !ऊपर से भोला दादा जो अब तक एक ब्रहमचारी का जीवन जी रहे थे ,प्रथम स्त्री संपर्क में ही स्वयं को ,नष्ट भ्रष्ट करने पर तुल गए ,उनकी बुद्धि ने विवेक ने उनका साथ ,उन दिनों बिलकुल छोड़ दिया था !मेरा विवाह हो जाने के कारण अपने ही घर से मेरी व्यस्तता ने मुझे दूर कर रखा था !कि वहाँ अचानक अघटित होने वाली घटना घटित हो गई !
उस महिला के नीच प्रलोभन में जब भोला दादा पूरी तरह फंस चुके ,तब मेरे घर में भी उन्होंने आना जाना बहुत कम ,बल्कि न के बराबर कर दिया था !उनकी बुद्धि पर जैसे कुठारा घात हो गया था !पिता द्वारा एक कुलीन विधवा ब्रह्मणी भी लाई गई ,उनसे विवाह प्रस्ताव हेतु !पर उस कपटी महिला ने उस गरीब ब्रहमणी पर इतने लाक्षन लगाये ,कि वह अपना मुहँछुपा कर रोती बिलखती एक दिन बिना किसी को बताये वहाँ से चली गई !
जब भोला दादा की सारी की सारी जमा पूंजी ,वह स्त्री हरण कर चुकी ,तब जाकर उसके घृणित आचरण से भोला दादा की दृष्टि पर पड़ा पर्दा उठा ,लेकिन तब तक बाजी हाथ से निकल चुकी थी !चारित्रिक पतन एक बार किसी को अपनी मुठ्ठी में जकड ले ,तो दुनियाँ में कोई उसका कुछ भी नहीं कर सकता !पूरे कस्बे के समाज में अति सम्म्मानित भोला दादा धीरे धीरे सबकी नजरो में गिर चुके थे ,और इन अफवाहों के चलते पिता जी ने भी , उनके गृह प्रवेश पर पूरी तरह रोक लगा दी थी !यहाँ तक कि किसी को उनसे चोरी छुपे मिलने की या मदद करने की भी ,बिलकुल इजाजत नहीं थी !पर जिसका डर था, आखिर वह दिन आगया !
किसी भयंकर गोपनीय बीमारी के कारण भोला दादा की तबियत खराब रहने लगी ,ऐसे में वह बदचलन धूर्त स्त्री उनको एक रात तेज बुखार में ,रेलवे स्टेशन की बेंच पर छोड़ कर गायब हो गई ,क्योकि उसका मतलब सिद्ध हो चुका था ,अब वह उसके लिए फेंके जाने लायक कूड़े से अधिक कुछ नहीं थे !सुबह लोगो ने उन्हें बडबडाते कराहते देखा ,पर मदद के लिए कोई नहीं आया !इलाज का पैसा उनके पास था ही नहीं ,दो दिन तक रेलवे कर्मियों ने दया करके कुछ दवा पानी आदि दिया ,पर होनी को अब उनका यह प्रायश्चित मंजूर नहीं था ,वे अगली सुबह उसी बेंच पर मृत पाए गए ,जहाँपर वह महिला उन्हें छोड़ गई थी !कुछ लोग उन्हें पागल ,कुछ भिखारी ,समझ कर घृणा से मुहँ तो फेरते रहे पर ,पहचाना उन्हें किसी ने नहीं !
मेरा अशांत मन अत्यधिक विचलित था ,क्या धर्म के पुत्रो का ,धर्म के पिता के प्रति ,उनकी आत्मा की शान्ति के लिए कोई धार्मिक कर्म कांड आदि की व्यवस्था शास्त्रों ने नहीं बनाई ? क्या केवल दैहिक पिता ही सर्व सम्मति सर्वाधिकारी है ? महज एक गलती के कारण किसी व्यक्ति क़ी साधना ,त्याग, सेवा ,सच्चाई सब पर कैसे प्रश्न चिन्ह लग सकता है ?यह कैसा निर्मम धर्म है ?कैसा बर्बर समाज है ? आखिर यह किस प्रकार का न्याय है ?और इसी उद्वेलित मन से मैंने सूर्य को अर्ध्य देने के लिए लाये ,जल- अक्षत से कब अनजाने ही, अपने धर्म पिता का तर्पण करते हुए ,उन्हें जलांजलि दे दी ,मुझे आभास तक नहीं हुआ !बस आँखों में आँसू थे ,जो लगातार बहते जा रहे थे !!!
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