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सागर की अंधी लहरो में,
कागज की नाव चलाई है |
अपने घर की दीवारो में
तुमने बारूद बिछाई है |
दो हाथ बढ़े श्रद्धा के जब ,
पांवो को खीच लिया तुमने ,
था प्रश्न बहुत ही सरल ,|
मगर हल कितना कठिन किया तुमने ?
यह परिभाषा सम्बन्धो की ,
क्यों इतनी जटिल बनाई है |
अपने घर की दीवारो में ,
तुमने बारूद बिछाई है |
जिन तेज हवाओ की शह पर ,
तुमने बदली अपनी पारी |
वे अनुबंधित तुफानो से ,
अब ढूंढरही अपनी बारी |
लड़ कर सैलाबों से किसने ,
नापी तल की गहराई है |
अपने घर की दीवारो में ,
तुमने बारूद बिछाई है |
जो हद से नीचे गिर जाये ,
वह प्रगति शील कहलाते है |
जो मर्यादा कुचले उसको ,
तमगे पहनाये जाते है |
इन उलटे रीति रिवाजो से ,
क्यों हमने आस लगाई है |
अपने घर की दीवारो में ,
तुमने बारूद बिछाई है |
चलती जीवन भर साथ साथ ,
पर अलग अलग रह जाती है |
ये रिश्ते उन रेखाओ सी ,
जो कभी नहीं मिल पाती है |
कुछ शंका संदेहो ने भी ,
चुपके से घात लगाई है |
अपने घर की दीवारो में ,
तुमने बारूद बिछाई है |
विष बेले सींची जीवन भर ,
अनगिनत बिखेरे कांटे है |
तुम सुख पाओगे कैसे ?
तुमने केवल दुःख ही बाँटे है |
जो पाप किये तुमने उसकी ,
कब किसे क्षमा मिल पाई है |
अपने घर की दीवारो में ,
तुमने बारूद बिछाई है ||
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