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बच्चों को भावी जीवन संघर्ष के लिए तैयार करें!!!!

swarnvihaan
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बाल अवचेतन की सूक्ष्म ग्रहण शक्ति बड़ी कोमल और प्रबल होती है !वह आसपास घटती सभी घटनाओ को अपने मानस पटल पर अंकित करती रहती है !बड़े होने पर वही वातावरण व प्रभाव उनके व्यक्तित्व में विकसित होकर दृढ और लगभग अपरिवर्तन शील रूप ग्रहण कर लेता है !
शिशु का मन अपनी भ्रूणावस्था से लेकर बाद के पांच वर्षो तक अत्यधिक संवेदन शील और जागरूक रहता है ! उसके साथ जैसा भी व्यव हार होगा ,उसी का प्रति दान वह बड़ा होकर समाज को देगा !इस दुनिया की बहुत छोटी छोटी व मामूली दिखने वाली समस्याएँउसकी दुनिया के लिए बहुत गंभीर और आश्चर्य जनक हो सकती है !यदि उसकी मासूम जिज्ञासाओ कासमाधान मीठे व सरल शब्दों में किया जाए और सवालों के प्रति उसमे रोचकता जगाई जाये ,जिसमे व्यावहारिक सत्य का भी समावेश हो ,तो वह क्रमश: बढती उम्र के साथ जमीन से भी जुड़ता जायेगा ! और दुनिया का वास्तविक रंग रूप उसकी समझ ग्रहण करने लगेगी !उसे बचपन से ही इस तथ्य को आत्म सात करने योग्य बनाना प्रारंभ कर देना चाहिए कि, जीवन मात्र फूलों की शैया न होकर अनवरत संघर्ष का दूसरा नाम है !यह वह युद्ध क्षेत्रहै जहाँ पीठ दिखाने वाले कायरो की कोई पहचान नहीं ! इस प्रतिस्पर्धात्मक भौतिकता वादी समाज में जो अपनी क्षमता और पात्रता सिद्ध नही कर सकता ,वह अ योग्य कहलाता है !और सबसे पीछे रह जाता है !
बच्चों को किसी विशेष धर्म के प्रति आग्रह शील बनाना भी ठीक नहीं वे धार्मिक हो ,कट्टरता वादी न बने !उनके भोले बचपन को धर्मान्धता के जहर से बचा कर उन्हें उद्दात मानव धर्म की शि क्षा दें !सभी धर्मो का निचोड़ केवल यही है , निर्भय ,जिए और सबको निर्भय जीने दे !उनमे सर्व धर्मसम भाव का विकास स्वाभाविक रूप से होने दे माता पिता की भूमिका का उदार मन से निर्वहन करे !बच्चो में दयालुता का,और नारी के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न हो ,ऐसा वातावरण घर का बनाये !संकीर्ण मानसिकता से उन्हें भरसक दूर रखे ,उन्हें अपनी महान भारतीय परम्पराओ से प्यार करना सिखायेँ! ताकि वह बड़े होकर अपनी संस्कृति ,भाषा और उसकी मौलिकता से परिचित हो सके !
प्राय: अभिभावक अपने व्यक्तित्व की ही छाप अपने बच्चों में देखना चाहते है ! किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए ,कि हर आने वाला बच्चा शारीरिक समृद्धि के लिए अपने माता पिता पर आश्रित रह कर भी राष्ट्र व समाज की अखंड धरोहर होता है !उससे ही आने वाला कल निर्मित होगा !अत: उसके व्यक्तित्व का उद्दाती करण करे ,ताकि वह सबका हो सके !सबके लिए जिए केवल स्वार्थी संकुचित द्रष्टि लेकर अपने लिए ही न सोचे !जीवन की हर कसौटी पर सोने सा खरा उतरे ! कभी हारन माने ,माता पिता को अपने संकीर्ण स्वार्थो की परिधि में बच्चो को नहीं लाना चाहिए !उनका अतुलित प्यार दुलार बच्चों के लिए अम्रत होता है !किन्तु वही प्यार जब सीमा से अधिक अँधा होकर गलत सही का अंतरभूल कर उचित अनुचित सारी बाते बच्चो की मानने लगता है तब तक देर हो चुकी होती है!
बच्चो को बचपन से ही स्वावलंबी होना सिखाये ,उन्हें अपने छोटे छोटे कार्य स्वयं करने के लिए उत्साहित करे ताकि वे बड़े होकर उंगली थाम कर चलने के बजाय अपने पैरो पर खड़े होना सीखे !
बच्चो की सारी जिद व भावनात्मक उदंडता पर उन्हें टोके रोके!वर्ना एक
अशिष्ट युवा की रचना होते देर नहीं लगेगीं! जो भविष्य में परिवार व समाज दोनों के लिए संकट बन सकता है !और ये भी हो सकता है कि आवश्यकता से अधिक मिलीछूट उसकी सोच को इतना विकृत कर दे ,उसके क्रिया कलापों को इस सीमा तक असामाजिक कर दे कि वह सबके लिए असहनीय हो उठे !तब वहाँ से उसकी वापसी कठिन ही नहीं ,असंभव होगी !,क्योंकि लचकीली टहनी ही मुड़ती है ,कठोर डाल अपने साथ संयोजन की कोई आशा नहीं छोड़ती !!
“मै सपनो का राज हंस हूँ,
नील गगन में उड़ता हूँ !
आशाओं के पंख हैं मेरे ,
कभी न पीछे मुड़ता हूँ!!
मैं चाहूँ तो सोना कर दूँ,
इस धरती की माटी को !
फूलों की खुशबू से भर दूँ ,
सूने मन की की घाटी को !
मैं बसंत का विजय राग हूँ,
तूफानों में हँसता हूँ !
आशाओँ के पंख हैं मेरे ,
कभी न पीछे मुड़ता हूँ !
मुस्कानों के इन्द्रधनुष से ,
रचता हूँ मैं नया सवेरा !
जैसे दीपों के जलने से ,
मिट जाता है घोर अँधेरा !
सच्चाई का नन्हा सूरज ,
बन कर रोज चमकता हूँ!
आशाओँ के पंख हैं मेरे ,
कभी न पीछे मुड़ता हूँ !!!”

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