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भारतीय संस्कृति और साहित्य की मुख्य धारा वस्तुत:अद्वैत परक है ! वैदिक वाड.मय की हिमालय से नि:सृत होती हुई,जो अखंड ज्ञान गंगा उपनिषदों ,पुराणों, और षड दर्शन के विशाल प्रांगण को प्लावित करती इहुई,शंकराचार्य के दिगंत विजयी अद्वैतवाद के महा समुन्द्र में परिणित होती है !वास्तव में उसी के हरे भरे तट कूलों पर हमारी संस्कृति और सभ्यता के विशाल वन हमेशा फलते फूलते रहे है !
‘पुरुष एवेदं सर्वं यद भूतं यच्य भाव्यम !
उतामृतत्व स्ये शानो यदन्नेनाति रोहति!!’
( पुरुष सूक्त १/६०)
“यह सब कुछ जो उत्पन्न हो चुका है ,और जो उत्पन्न होने वाला है ,वह सब कुछ पुरुष ही है !वह अमरत्व का स्वामी है ! तथा जो मन से
समॄदधवान होता है बढता है !उसका भी स्वामी है !’
यजुर्वेद और अथर्व वेद की अंतर प्राण धा रा भी यही अद्वय वाद है !
‘”विश्नोर्नुक वीर्याणि प्रपेचय: पर्थिवानिनी मये रजा छसि !
योउअस्क भाव दुत्तरँ सहास्थं विचक्र माणास्त्रे थोरू गायों विष्णावे त्वा ,(सब मनुष्यों को जिस परमेश्वर ने ,पृथ्वी सूर्य और त्रसरेणु आदि भेद से तीन प्रकार के जगत को रच कर धारण किया है ,उसी की उसी की उपासना करनी चाहिए )
(यजुर्वेद /,५/१८)
अथर्व वेद के दशम काण्ड,सूक्त अष्टम के अनुसार
“यो भूतं च भव्यं य सर्व यच्चा धि ति ष्ठति
स्व यस्यि च केवलम तस्मै ज्येष्ठाय ब्रहणो नम:”
(जोभूत भविष्य और सबमे व्याप्त है ! जो दिव्य लोको का भी अधिष्ठाता है ,उस ब्रह्म मो प्रणाम है ! )
सामवेद की गीतिकाओ ने उसे इस प्रकार बताया –
“त्वं वाचं महि प्रत पृथनी चाति जभ्रिवे
प्रति द्रापि ममु च्चाथा: पवमान महित्वना ”
(हे महान संकल्प वाले परमेश्वर ,इस पृथ्वी और धूलोक दोनों को ही धारण करते हो !किंचित अपने महात्म्य से जीवो की कुत्सित गति निकृष्ट जीवन को भी दूर करो )–६/६/३/१९
हमारे उपनिषद समस्त वैदिक साहित्य के ज्ञान का सार है !इनकी प्रति स्थापनाएँ ,प्राचीन ॠषियों मनीषियों की अद्भुत आध्यात्मिक खोज और दार्शनिक चिंतन की वह पराकष्ठा है !जहाँ तक पहुचँने में पाश्चात्य बुद्धि को अभी सदियाँ गुजारनी है !जो शाश्वत प्रतिध्वनि से नि:सृत होती है ! वह यहाँ आकर अत्यंत स्पष्ट उद्भासित होती है ! –
“तद वा एतदक्षरं गाग्य दृष्टं द्र्रूट्र श्रुत् टश्रोत मंत मंज विज्ञातंविज्ञात्!नान्य दतो अस्ति दष्टट् नान्य दतो अस्ति श्रोतृनान्य द्तोअस्ति मन्त !!
नान्य द्तोअस्ति विज्ञात्रे तसिमन्नु खल्वक्षरे गागर्याकाश ओत्श्च प्रोत्श्चेति ”
(३/८/११) वृहदारणय उपनिषद )
(हे गार्गी यह अक्षर स्वयं ,दृष्टि का विषय नही है ! किन्तु ,दृष्टा है , श्रवण का विषय ,नही किन्तु श्रोता है !मनन का विषय नहीं किन्तु मन्ता है !स्वयं अविज्ञात रहकर ,दुसरो का विज्ञाता है !इससे भिन्न कोई श्रोता नही है ! इससे भिन्न कोई ममता नहीं है !इससे भिन्न कोइ विज्ञाता नहीं है !हे गार्गी !निश्चय इस अक्षर मेंही आकाश ओत प्रोत है !)
छान्दोग्य में इसे इस प्रकार व्यक्त किया गया है –
“सर्व खल्विदं ब्रहम् तज्जलानिति शांत उपासीत
अथ खलु क्रत मय: पुरूषों यथा क्रतु रस्मिल्लोके
पुरुषो भवत तथेत: प्रेत्य भवति स्क्रतुं कुर्वीत !!)
(यह सारा जगत निश्चय ही ब्रह्म है ,यह उसी से उत्पन्न होने वाला उसी में लींन होने वाला ,और उसी में चेष्टा करने वाला है ! इस प्रकार शांत (राग द्वेष रहित )होकर उपासना करे !क्योकि पुरुष निश्चय ही क्रतु मय निश्यात्मक है !इस लोकमे पुरुष जैसा निश्चय वाला होता है ,वैसा ही मर कर जाने पर होता है ! अत:उस पुरुष को निश्चय करना चाहिए !
रस ब्रह्म का निर्देशन करने वाला उपनिषद तैत्तरीय उपनिषद है उसका भी कथन है —
“यताय स्माद्वा इमानि ब्रह्म दीनि स्तम्ब पर्यंत नि भूतावि ,
जायन्ते येन जातानि जीवन्ति प्राणा न्धार यन्ति वर्धन्ते !
विनाश काले च यत्प्र यन्ति यद ब्रह्म प्रति गच्छति –
अभि संवि शान्ति तादत्म्यमेव प्रतिपद्यन्ते !!”
(भ्रगुवल्ली प्रथम अनुवाद )
(जिससे यह ब्रह्मा से लेकर ,स्तम्ब पर्यन्त समस्त प्राणी उत्पन्न होते है ,जिसके आश्रय से उत्पन्न होकर जीवित रहते है ,अर्थात प्राण धारण में समर्थ होते है ! वृद्धि को प्राप्त होते है ,तथा विनाश के समय प्रतिगमन करते है ,अर्थात उसके अनुरूप हो जाते है !)
श्वेताश्वेत उपनिषद कहता है कि वह सर्व व्यापी जगत कर्ता सर्वदा समस्त जीवो के ह्रदय में स्थित है —
“एव देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानाम ह्रदये संनि विष्ट:
हदा मनीषा मन्त्सा भिक्त्रप्तो य एत द्विदुर सृताप्ते भवति )
(४/१७१/२०६)
अठ्ठारह पुराणों को वेदों की सर्वोत्तम व्याख्या माना गया है ,आत्मिक उन्नति के चरम बिंदु को स्पर्श करके लौटती भारतीय मंश्चेतना विश्व को प्रेम शांति दया मानवता का पाठ पढाती चलती है !समस्त वैष्णव धर्म का समावेश महनीय पुराण भगवत पुराण में है ! यह तत्व और काव्यत्व दोनों दृष्टियो से उत्कृष्ट ग्रन्थ है ! यह भी अद्वैत का समर्थन करता है !
“यथैव सूर्या त्प्रभ भवन्ति वार !
पुनश्च तस्मिन् प्रविशन्ति काले
भूतानि भूमौ स्थिर जड़ मानि
तथा हरा वेव गुण प्रवाह !”
(४/१५)
(जिस प्रकार वर्षा जल सूर्य के ताप से उत्पन्न होता है ,और ग्रीष्म ॠतु में उसी की किरणों में पुन: प्रवेश कर जाता है ,तथा जैसे समस्तचरा चर भूत पृथ्वी से उत्पन्न होता है ,और फिर उसी में मिल जाते है ! उसी प्रकार चेतना चेतनात्मक यह समस्त प्रपंच हरि से ही उपन्न हो ता है ,और उन्ही में लींन हो जाता है ! )
प्राचीन हरिवंश पुराण भी कहता है —
” शिर:रव ते जलंमूर्ति: पादौ ,भूर्दहनो मुखम्
वायुर्लो कायुरु छ्वासो मन: सोमो हय थू ततव ”
(१४/३८)
(आकाश आपका सर है जल मूर्ति है ,पृथ्वी पैर है ! अग्नि मुख है !लोको को जीवन देने वाली वायु आपका उच्छ्वास है ! और चन्द्रमा आपका मन है !)
आज हम उन निर्मल उत्ताल ज्ञान गंगा की विशुद्ध लहरियों से कोसो दूर चले आये ,मानव से दानव बनने की इस यात्रा में हमारे हवस और लालची पंजो ने मानवता का मुहँ नोच कर लहू लुहान कर दिया है !मनुष्य और मनुष्य के बीच में दीवार खड़ी करने के लिए ,आज जिस धर्म का नाम लिया जाता है ,वस्तुत:वह एक राजनैतिक पाखंड के सिवा कुछ है ही नहीं ! सच्चा धर्म हमारे अनादि संस्कारों में हमारी रगों में बहता है! हमारी जड़ो को सीचँता है !मनुष्य से मनुष्य ही नहीं प्राणी से प्राणी मात्र का अद्वय सम्बन्ध स्थापित करता है !गीता कहती है —
” समं सवेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् !
विनश्च त्स्व विनश्चन्तं य:पश्यति स पश्यति !! ”
(१३/२७)
(इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतो में नाश रहित परमेश्वर को सम भाव से देखता है वही देवता है ! )
महान अद्वेत वादी संत शंकराचार्य ने वेदांत दर्शन का शारीरिक भाष्य लिख कर दिग दिगंत मे अद्वैतवाद का विजय ध्वज फहरा दिया !वस्तुत:अद्वैतवाद का मूलाधार वैचित्र मय नानात्व ही हैअद्वैत की सिद्धि ही नानात्व के मष्तिष्क से की जा सकती है ! स्वामी विवेकानंद जी ने अपने ‘वेदांत रहस्य ‘ में कहा है —
“संसार के लिए वह दिन अत्यंत बुरा होगा ,जब प्रत्येक मनुष्य का धार्मिक मत एक हो जायेगा ! तथा प्रत्येक मनुष्य एक ही मार्ग का अवलोकन करने लगेगा !उस समय तो सभी धर्म और सभी विचार नष्ट हो जायेंगे ! उस समय स्वतंत्र विचार शक्ति तथा वास्तविक विचार भाव नष्ट हो जायेंगे !वैचित्र्य ही जीवन का मूल मन्त्र है ! ”
(२०पृ ०वेदांत रहस्य )
हिन्दू धर्म एकेश्वर वाद की भूमि पर प्रतिष्ठित है ! यह एकेश्वर वाद वास्तव में एक अहिंसात्मक विचार पुंज है !जो पवित्र व आध्यात्मिक चिंतन शैली की ठेठ भारतीय पहचान है !हमारा एकेश्वर वाद और अद्वैत वाद किसी दूसरे धर्म की हत्या करना नहीं सिखाता !
‘तुम्हें जिस मंदिर में जाने से ईश्वर लाभ में सहायता मिल सके ,वहाँ जाकर उपासना करो !परन्तु उन मार्गो पर विवाद मत करो ! तुम जिस समय विवाद करते हो ,उस समय ईश्वर की ओर नहीं जाते ,परमात्मा की ओर नहीं बढते ,अपितु उलटे पशुत्व की ओर चले जाते हो ! ‘
(पृ०-२२)
(वेदांत रहस्य -विवेकानंद )
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