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बुद्ध का गृह त्याग ### लम्बी कविता !!contest !!

swarnvihaan
swarnvihaan
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अर्ध रात्रि-
नीरव था ,विश्व का कोलाहल !
जन-जन की पलकों में
अंध स्वार्थ ,
इंद्र धनुष खींचंता था !
वैभव प्रमाद का !
निंद्रा की मोह मयी –
अल को की छाँव में ,
दिन की थकन
विश्रांति जैसे खोजती !
राज प्रकोष्ठ के खुले वातायनो से ,
मंद -मंद शीत पवन संचरण
करता था ,
सौरभ के भार से !
किन्तु सिद्धार्थ की
शून्यं में टिकी थी द्रष्टि
शून्य भेदती हुई !
जैसे
निर्लिप्त सी,
प्रकृति सौन्दर्य के अथाह पारावार से !
सम्मुख समस्त स्रष्टि
मौन के त्यौहार सी ,
विजड़ित हो बिखरी है !
पार्श्व में ही सो रही
परिणीता प्रेयसी
गौरव मातृत्व का मुख पर विराजता!
उस सुप्त सुषमा के
अधरों से
खेल रहा सुखमय पलो का इंद्रजाली
मधुमास था !
लिपटी थी बाहँ दोनों
शिशु की अबोध
नव किसलय सी देह से !
किन्तु –
निरीक्षण का आज अवकाश कहाँ ?
झांक रहा आँखों से वत्सल विराग बना !
प्रिया की प्रीत भी
लगती प्रवंचना सी !
डाल रही एक नई रेखा अवसाद की !
उस राज मुख पर !
पीड़ा का पावस भी कांप रहा
पलको में !
मन में विचारों के प्रबल झंझावात से !
मानसी साम्राज्य आज
डावाँडोल था.
विद्रोही भावो के घात प्रतिघात से !
सोंच रहे थे यही
आज ही तो जीवन का
प्रथम प्रभात था !
आज ही
तो सत्य से प्रथम साक्षात था !
आह !
उस वृद्ध की याचना भरी सी द्रष्टि
प्राणों को बींधती
शूल सी समाई है !
मानो
युग -युग की आहत है करुणा ,
आचँल पसारे
भीख आज मांगती है !
आह!
कैसी दुर्दशा इस अलभ्य जीवन की ,
जिसे अमरत्व का प्रतीक
मानता था मै
देख ली नश्वरता आज उस यौवन की !
काल का ही क्रूर चक्र
एक यहाँ शाश्वत है !
आतंकित है
प्राण प्राण
उसके ही एक विप्लवी संकेत से !
उत्पीड़ित मानवता
असहाय ढूढ़ ती है ,
मुक्ति इस वेदना से ,
और
फिर मौन रह सके न वे ,
संतप्त वसुधा के
दारुण क्रंदन से !
दूर हुई मानस से
स्थिति अनिश्चय की !
त्राण पा गए जैसे ,
मोह भरी भटकन से !
फूट पड़ी
ओज भरे दीप्त मुख मंडल से ,
अजस्र प्रभा धारा सी ,
तभी ,
सहसा ही
यशोधरा की पलको से
अश्रु बिंदु ढलके ,
हास भरे अधरों से फूटी थी सिसकी !
जैसे पूर्व़ा भास् था ,
निराश्रित भविष्य का ,
अभिशप्त दाम्पत्य के
करुणा मय
अंत का!
ममता की बांह कुछ अधिक हो ,
लिपट गई
शिशु के नन्हे अस्तित्व से !
शायद –
दू:स्वप्न में भावी समक्ष थी
मानो
अवचेतना ने
खोल दी थी गांठ कोई
उसके दुर्भाग्य की !
देखा –
सिद्धार्थ ने एक पल के लिए
नत हो गए नयन
क्षमा के से भाव में !
किन्तु
फिर तुरंत ही
दृढ संकल्पों ने
एक नई लक्ष्य भरी
चरणों को गति दी !
आज –
वह युवराज कहाँ ?
डोल डोल जाता था जिसका
ह्रदय राज्य
प्रिया की विश्व मोहनी ,
बस एक मुस्कान से !
पितृ वक्ष भी कहाँ ?
ममता की लहरे
किनारा जब पाती थी ,
तोतली वाणी की सरल अभिव्यक्ति में !
विश्व शांति के इस
प्रथम महा यज्ञ में !
तुच्छ वैय्क्तिकता की आहुति अटल थी !
आज –
सभी माया के निष्फल
प्रयास थे !
बांधने में उस मुक्त चेतना को !
वैभव के भुज पाश
आज असमर्थ थे !
और फिर
खो गए बोधिसत्व ,
सत्य प्राप्ति के लिए !
प्राणी मात्र के लिए !
अंध रात्रि
के ह्रदय से प्रात की किरण
खोज लाने तक के लिए !
केवल पदचाप
गूंजते रहे
थोड़ी देर !
मानो भविष्य कहने लगा
कानो में ,
बुद्धं शरणं गच्छामि !
धम्मं शरणं गच्छामि !
सघं शरणं गच्छामि !!!!

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