swarnvihaan
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याद है ,
फूस की उस झोपड़ी में ,
पूस की वह रात ,
याद है
लेता उबासी ,बादलो के बीच
छुपता चाँद!
तेज झोको में
दीवारों से सटे
माँ के तन से कुनमुनाते ,
भूख से लिपटे हुए ,
दो हाथ !
याद है ,
उस मेंह में भीगे बदन
नीलाम होती
औरतो की लाज !
चार दाने भात के
और भर पतीला आस
धान की
उन किनकियो में ,
अनकही फरियाद !
याद है ,
वे अध पके से
खौलते जज बात !
कंप कपाते
कोहरे में
ठण्ड से अकड़े हुए
अध फटी उन कथरियो से
पांव बाहर ऐठतें,
याद है ,
बेबस पिता की
कोटरो में धंस गई
दो आँख !
याद है
फूस की उस झोपडी में
पूस की वह रात !!!!
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