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तुम !!! कविता !!!contest !!!

swarnvihaan
swarnvihaan
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तुम ,
अब क्यों याद करते हो मुझे !
अब क्या बचा है ?
समृतियों की राख में !
जब तुमने स्वयं ही तोड़ दिया
वचनों का देवालय
साधना का पावन मंदिर !
जीवन की
समग्र धरोहर !
तब क्यों चाहते हो परिणाम की शुभेच्छा !
क्या तुमने देखा है ,
बाबुल की शाखों पर गुलाब !
तुम नहीं जानते ,
तुम सोंच भी नहीं सकते ,
उससे क्या हुआ है ?
किसी की आस्था की समस्त सृष्टि ही
डगमगा गई ,
और
टुकड़े टुकड़े हो गई ,
सारी जीवन निष्ठा !
लेकि इससे तुम्हारा क्या जाता है ?शायद
आ ही गई
हमारे तुम्हारे
संबंधो के बीच !
स्वार्थ की कोई ,अनचाही रेखा !
थोथी प्रतिष्ठा का झूठा अहम
जिसने
जला कर राख ,
कर दिया ,बरसो की साधना !
बरसो का विश्वास !
अब इस राख में क्या बचा है ?
काश !
परिचय मात्र परिचय होता !
हम क्यों उसे निभाने ,
इतनी दूर
चले आते !
सच्चाई की धूप
अब बहुत तेज हो गई !
इस आंच में सपनो के पंख ,
झुलस गए !
थके पांव
अब ढूढंरहे है ,
वापसी की कोई राह !
किन्तु ,
प्यास और प्यास
अंत हींन प्यास !
जंहा तक दृष्टि जाती है
दूर दूर तक फैला है रेगिस्तान !
सूखे और सपाट चेहरे!
त्रिशंकु की तरह
अधर में
लटकी आस्था
अस्ति और नास्ति के बीच ,
अपना
अस्तित्व तलाशती है!
रेगिस्तानी सभ्यता के दू:शासन !
खींचते है ,
भावुकता का दुकूल
और ,
मनुष्यता की निरीह ,
पलको पर
असामर्थ्य पानी बन गया ,
किन्तु ,
हम जानते है ,
कि कोई कृष्ण अब
नहीं आएगा !
क्योकि ,
यह धरती अब खाली हो चुकी है
कृष्णो से !
भूल कहाँ हुई ?
मैंने तो बहुत यत्न से संभाला था ,
तुम्हारा
सारा विश्वास ,
तुहारे शब्दों का सत्य !
लेकिन
शायद मेरी कमजोर बाहों में
सत्य सारा का सारा
समां नहीं पाया !
कुछ छूट गया था ,
और
जो छूट गया था !
शायद ,वही सत्य था
अब तो सभी दूर भागना चाहते है
मुझसे !
मेरे अस्तित्व के वह
अनदेखे कांटे ,
शायद
तुम्हे भी महसूस हो गए !
लेकिन मैंने नहीं चाहा ,
कभी नहीं !,
कि मेरे अस्तित्व की ये चुभन ,
मेरे आंसुओ का गीला पन ,
किसी और तक पहुँचे ,
क्योंकि
क्या पता किसी का घर
कागज का हो !
तुम्हे शायद् इतनी न समझ हो
लेकिन मैंने
पह चान लिया है !
कि समय की बांह कोमल नहीं होती !
कभी नहीं
और उसकी
आँखों में इन्द्रधनुष के रंगभी नहीं होते !
कम से कम मेरे लिए तो
बिलकुल नहीं ,
बहुत अंतर है
जिंदगी जीने में
और जिंदगी ढोने में !
लेकिन
तुम्हे एहसास कहाँ ?
क्योंकि जिंदगी जीने वाले ,
जिंदगी ढोने वालों का दर्द
नहीं समझते ,
कभी नहीं !
लोग कहते है ,
(शायद तुम भी सोचते हो )
कि डूबता सूर्य फिर से निकलता है !
पत झर
वसंत का उदगम है ,
पर मेरे लिये आज
सारे अर्थ
बदल गये है !
और सत्य भी तो
शाश्वत नहीं
केवल
काल सन्दर्भ की अनुभूति भर है !
क्योकि
इस बार सूर्य निकलने के लिए नहीं,
डूबा !
और पतझर शाखों को
ठूंठ बना गया है ,
सदा के लिए !!!

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