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लड़कियां !
ही लड़कियां !!
कल मेरे सपने में आकर तैर रहीं थीं,
उनींदी पलकों की दहलीज पर
,उनमें थीं कुछ मरी हुई,
कुछ जिंदा ,
जो जिंदा थीं
वो मरी हुई लड़कियों से भी
बदतर ,हालत में थीं,
उनमें से किसी के तन पर कपड़े तो थे ,
पर नुचे , कटे , और फटे हुए,
और गालों पर थीं स्याह लकीरें
जाँघों , हाथों’ और छाती पर थे,
घावों के निशान
फिर भी
बेहिसाब मासूमियत और बेबसी थी
उनके चेहरों पर
,मगर कुछ की आँखों में दहक रहे थे अंगारे ,
हैवानियत और दरिंदगी के ,प्रतिरोध में,
उनकी आँखों में जल रहे थे सवाल ,
वे चाहतीं थीं,
अपने खिलाफ,हर साज़िश के लिए,
विद्रोह की आग बन जाना ।
एक मुँह तोड़ जवाब ,
पर उनके हाथ बहुत बौने और कमज़ोर थे,
रूढ़ियों की बेड़ियों से जकड़े थे,
उनके पैरों के जोड़े,
वेचाहतीं थी !
आसमान छूना
पर कुचल दिए जाने के डर से,
सिले गए थे उनके होंठ !
बस ऊँचाइयों के एहसास का समंदर,
लहरें ले रहा था
उनकी आँखों में !
और कुछ मरी हुई लड़कियां भी थीं,
कुछ थीं,
मॉस का लोथड़ा मात्
शायद कोख में ही,
रौंद दी गयी थीं वे,
अपने जन्मदाताओं के द्वारा
निकाल कर फ़ेंक दी गयीं थीं
कचरे की तरह,
सदियों की घुटन उनके सीने में कैद थी
कुछ और भी थीं
आधी-अधूरी आकृतियाँ ,!
असहाय, लाचार
मगर प्रतिशोध के शोलों से घिरी,
जिनकी आँखें थीं
खुली की खुली!
मानो श्राप दे रहीं हों,
धरती को स्त्री विहीन होने का !!
ये लड़कियां,
पैदा होते ही क्यूँ नहीं लातीं ?
अपने साथ दहेज़,
ताकि वे बोझ न रहें,
अपने ही परिजनों पर,
सत्कार की पात्र हो सकें,
सहोदर भाइयों की भांति
कर्ण की तरह,
क्यों नहीं विधाता ने उन्हें दे दिए,
कवच और कुंडल !
जन्म के साथ ही ,
ताकि भूखी नंगी दुनिया को,
वे भीख में दे सकें,
जीवन भर अपना सर्वस्व,
नोच नोच कर अपने जिस्म का
हर हिस्सा।
आखिर कर्ण की तरह,
जीवन भर
उन्हें दान ही तो करना होता है!
श्रमदान, पुत्रदान, देंह्दान, क्षमा दान,
यहाँ तक की
एक-एक साँस,दान में माँग ली जाती है,
वे निःशस्त्र लड़तीं हैं,
आजन्म शत्रुओं की विशाल फ़ौज से,
जो उनके आस पास,
कभी पिता, कभी भाई, कभी पुत्र,और कभी प्रेमी या पति का
,मुखौटा पहन कर,
आता रहता है।
एक-एक करके या कभी ,
एक साथ ही !!!
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